Sunday 8 April 2018

मेरे ऑफिस की वो लड़की (2)


मेरे ऑफिस की वो लड़की (2)
प्रथम भाग के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें...
अब तक: सच तो यह है कि उससे सुंदर बिल्ली तो क्या चाँद भी न है। उसकी मुस्कुराहट पर ये सभी टकटकी लगाकर देखते रह जाते हैं।

गूगल आभार 

अब आगे:
.....बहुत अजीब सी बात है तुमने मुझे क्यों नहीं बताया कि तुम कहीं घूमने गये थे, तभी पिछले एक हफ्ते से गायब थे. तुम्हारा मोबाईल स्विच ऑफ था. मुझे पता है तुम मुझे अपने साथ लेकर जाना ही नहीं चाहते. हां तुम्हारा दोस्त लल्लन भी यही कह रहा था कि तुम पंखुड़ी के साथ गये थे...सब एक सांस में वह बोलती जा रही थी. हफ्ते भर की व्यथा को कहने का प्रयास कर रही थी. उसके होंठ लेकिन बार-बार कांप जाते. शायद उसने दिन-रात यही सोचा था कि पता नहीं क्यों मुझसे बात नहीं कर रहा. आखिर कुछ भी बात थी तो उसे बता तो देता. पंखुड़ी के साथ जाने में बुरा तो लगता लेकिन आखिर उसकी पुरानी दोस्त है तो सवाल भी क्यों करूँ....और फिर मुझपर तो विश्वास कर ही सकती थी....ऐसे अनगिनत सवाल मन में आते थे, जिनका जवाब वह काफी देर से खुद ही देती रही.
मैं अपने कीबोर्ड पर टायिप कर समाचार लिखते-लिखते इतना रम गया था कि मैं उसके शब्दों पर ध्यान नहीं दे रहा था..बगल में एक कुर्सी थी उस पर आकर वह अब बैठ गयी थी..इतना तो मुझे पता था परन्तु उसे लग रहा था कि मैं उसकी बातों को अनसुना कर रहा हूँ. उसने पल भर में मेरे कीबोर्ड पर एक हाथ रखते हुए और दूसरा मेरे कलाई पर रखकर कहा कि अब सुन लो....मेरे साथी, मेरे हमसफ़र....तुम ऐसा क्यों किये ....चलो...तुम ये भी मत बताओ लेकिन तुम ये तो बता ही दो कि तुम जहाँ गये थे वहां पहाड़ था, पंखुड़ी और तुमने वहां क्या-क्या देखा...तुम लल्लन को बताए कि तुमने वहाँ झरने की झर-झर की आवाज में काफी कुछ गुनगुनाया था... तुम यहाँ भी गुनगुना सकते हो....
मुझे सारे प्रश्न सही लग रहे थे और मैं सबमें हाँ बोलना चाह रहा था....लेकिन मैं अब भी चुप था...मुस्कुरा रहा था.
इतनी खामोशी में अब वह रोने लगी थी...आँसू निकलने ही वाले थे कि मेरी साँसों में एक उफान सी आ गयी और मैं न चाहते हुए भी अब अपने दोनों हाथ उसके चेहरे पर रखकर उसे पढने लग गया था....थोड़ी देर में आंसुओं का सैलाब उमड़ते हुए मेरे हाथों की रेखा से होते हुए मेरी गोदी में जा गिरा .....हुआ कुछ नहीं लेकिन आँखों की चकाचौध ने इतना जरूर बता दिया कि उसकी आँखों में आंसुओं के सैलाब की जगह सच पूछो तो यह मेरी आँखों में होना था लेकिन उससे सब कुछ बताकर निराश तो नहीं करना था...
उसकी प्यारी बातों में ज़रा भी अपराध नहीं छिपा था...बहुत इनोसेंट थी....क्यूट तो बिलकुल बिल्ली के तरीके से ही थी...लेकिन उससे मैंने इतना ही कहा कि तुम क्यूट नहीं हो...उसने तपाक से कहा कि तुम भी नहीं हो लेकिन अब उसके चेहरे पर इतना कहते ही हंसी आ गयी जो बता रही थी कि उसने झूठ बोला है...
पंखुड़ी के साथ मेरी दोस्ती की मिसाल तो सबको पता था वह चाहे लल्लन ही क्यों न था...या उसे खुद ही पता था...पर्वत पर झरनों का आनंद तो लिया ही था, इसलिए उसने हाँ कर दिया....गीत गुनगुनाया ही था...इसलिए उसने हाँ कर दिया...और उसने इस बार कहा अच्छा तो सुनो.......
मैं फिर से गुनगुनाने लगा...
खुशी से अपनी आँखों को मैं अश्कों से भीगो लेता
मेरे बदले तू हस लेती, तेरे बदले मैं रो लेता
मुझे ऐ काश तेरा दर्द सारा मिल गया होता....मुझे तेरी मोहब्बत का.....
इतना गाते ही मेरी आंखों से वह दर्द रोके बिना भी फूट पडा और फिर वह तब तक समझ गई थी...हम दोनों अब फुटपाथ के किनारे बैठे हुए सिर्फ एक दूसरे का हाथ पकड़े यही कह रहे थे ....कि तुम मेरी आँखों को पढ़ो और मैं तुम्हारी आँखों को .....शायद अब वह पढ़ भी चुकी थी और फिर उसने ये भी समझ लिया था कि हफ्ते भर की छुट्टी घूमने के लिए नहीं, बल्कि मौत से संघर्ष करते हुए बिताया गया है .....मैं समझ गया था वह जान गयी है मेरी हफ्ते भर की कहानी...तब तक उसने यह सवाल जरूर सामने ला दिया था कि आखिर मेरे रहने से फायदा क्या हुआ...जब तुम्हारे दुःख की घड़ी में मैं साथ न रह पायी..

-प्रभात 


2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-04-2017) को "छूना है मुझे चाँद को" (चर्चा अंक-2936) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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