Sunday 22 April 2018

जा चली जा नदी की तरह


बुरे दिनों में सबसे करीब "मैं" होता है। अगर वह नहीं तो अच्छे दिनों की कल्पना करना बेकार है.
-google

जा चली जा नदी की तरह दूर समुंदर में कहीं
जा चली जा सीते अग्नि परीक्षा में अंदर धरा में सही
जा चली जा मेरी परछाई से दूर किसी लोक चाहे
पुकारोगी नहीं दुबारा मुझे अपने आन बान शान के आगे
मगर राम का क्या वो अग्नि के बाहर तड़पे थे, तड़पे हैं और तड़पते ही रहेंगे
त्याग और मर्यादा के चिन्ह पर सवाल थे, सवाल हुए और आगे होते ही रहेंगे
समाज में बदनाम पहले भी होते, बाद भी हुए और आगे होते ही रहेंगे......
-प्रभात


Sunday 8 April 2018

मेरे ऑफिस की वो लड़की (2)


मेरे ऑफिस की वो लड़की (2)
प्रथम भाग के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें...
अब तक: सच तो यह है कि उससे सुंदर बिल्ली तो क्या चाँद भी न है। उसकी मुस्कुराहट पर ये सभी टकटकी लगाकर देखते रह जाते हैं।

गूगल आभार 

अब आगे:
.....बहुत अजीब सी बात है तुमने मुझे क्यों नहीं बताया कि तुम कहीं घूमने गये थे, तभी पिछले एक हफ्ते से गायब थे. तुम्हारा मोबाईल स्विच ऑफ था. मुझे पता है तुम मुझे अपने साथ लेकर जाना ही नहीं चाहते. हां तुम्हारा दोस्त लल्लन भी यही कह रहा था कि तुम पंखुड़ी के साथ गये थे...सब एक सांस में वह बोलती जा रही थी. हफ्ते भर की व्यथा को कहने का प्रयास कर रही थी. उसके होंठ लेकिन बार-बार कांप जाते. शायद उसने दिन-रात यही सोचा था कि पता नहीं क्यों मुझसे बात नहीं कर रहा. आखिर कुछ भी बात थी तो उसे बता तो देता. पंखुड़ी के साथ जाने में बुरा तो लगता लेकिन आखिर उसकी पुरानी दोस्त है तो सवाल भी क्यों करूँ....और फिर मुझपर तो विश्वास कर ही सकती थी....ऐसे अनगिनत सवाल मन में आते थे, जिनका जवाब वह काफी देर से खुद ही देती रही.
मैं अपने कीबोर्ड पर टायिप कर समाचार लिखते-लिखते इतना रम गया था कि मैं उसके शब्दों पर ध्यान नहीं दे रहा था..बगल में एक कुर्सी थी उस पर आकर वह अब बैठ गयी थी..इतना तो मुझे पता था परन्तु उसे लग रहा था कि मैं उसकी बातों को अनसुना कर रहा हूँ. उसने पल भर में मेरे कीबोर्ड पर एक हाथ रखते हुए और दूसरा मेरे कलाई पर रखकर कहा कि अब सुन लो....मेरे साथी, मेरे हमसफ़र....तुम ऐसा क्यों किये ....चलो...तुम ये भी मत बताओ लेकिन तुम ये तो बता ही दो कि तुम जहाँ गये थे वहां पहाड़ था, पंखुड़ी और तुमने वहां क्या-क्या देखा...तुम लल्लन को बताए कि तुमने वहाँ झरने की झर-झर की आवाज में काफी कुछ गुनगुनाया था... तुम यहाँ भी गुनगुना सकते हो....
मुझे सारे प्रश्न सही लग रहे थे और मैं सबमें हाँ बोलना चाह रहा था....लेकिन मैं अब भी चुप था...मुस्कुरा रहा था.
इतनी खामोशी में अब वह रोने लगी थी...आँसू निकलने ही वाले थे कि मेरी साँसों में एक उफान सी आ गयी और मैं न चाहते हुए भी अब अपने दोनों हाथ उसके चेहरे पर रखकर उसे पढने लग गया था....थोड़ी देर में आंसुओं का सैलाब उमड़ते हुए मेरे हाथों की रेखा से होते हुए मेरी गोदी में जा गिरा .....हुआ कुछ नहीं लेकिन आँखों की चकाचौध ने इतना जरूर बता दिया कि उसकी आँखों में आंसुओं के सैलाब की जगह सच पूछो तो यह मेरी आँखों में होना था लेकिन उससे सब कुछ बताकर निराश तो नहीं करना था...
उसकी प्यारी बातों में ज़रा भी अपराध नहीं छिपा था...बहुत इनोसेंट थी....क्यूट तो बिलकुल बिल्ली के तरीके से ही थी...लेकिन उससे मैंने इतना ही कहा कि तुम क्यूट नहीं हो...उसने तपाक से कहा कि तुम भी नहीं हो लेकिन अब उसके चेहरे पर इतना कहते ही हंसी आ गयी जो बता रही थी कि उसने झूठ बोला है...
पंखुड़ी के साथ मेरी दोस्ती की मिसाल तो सबको पता था वह चाहे लल्लन ही क्यों न था...या उसे खुद ही पता था...पर्वत पर झरनों का आनंद तो लिया ही था, इसलिए उसने हाँ कर दिया....गीत गुनगुनाया ही था...इसलिए उसने हाँ कर दिया...और उसने इस बार कहा अच्छा तो सुनो.......
मैं फिर से गुनगुनाने लगा...
खुशी से अपनी आँखों को मैं अश्कों से भीगो लेता
मेरे बदले तू हस लेती, तेरे बदले मैं रो लेता
मुझे ऐ काश तेरा दर्द सारा मिल गया होता....मुझे तेरी मोहब्बत का.....
इतना गाते ही मेरी आंखों से वह दर्द रोके बिना भी फूट पडा और फिर वह तब तक समझ गई थी...हम दोनों अब फुटपाथ के किनारे बैठे हुए सिर्फ एक दूसरे का हाथ पकड़े यही कह रहे थे ....कि तुम मेरी आँखों को पढ़ो और मैं तुम्हारी आँखों को .....शायद अब वह पढ़ भी चुकी थी और फिर उसने ये भी समझ लिया था कि हफ्ते भर की छुट्टी घूमने के लिए नहीं, बल्कि मौत से संघर्ष करते हुए बिताया गया है .....मैं समझ गया था वह जान गयी है मेरी हफ्ते भर की कहानी...तब तक उसने यह सवाल जरूर सामने ला दिया था कि आखिर मेरे रहने से फायदा क्या हुआ...जब तुम्हारे दुःख की घड़ी में मैं साथ न रह पायी..

-प्रभात 


Tuesday 3 April 2018

नेताजी क्या कहते हैं


*क्या कहते हैं नेताजी***
एक दंगा हो तो बात बने
कोई नंगा हो तो बात बने
कागज कलम लेकर पढ़ाना है क्या?
कोई अनपढ़ हो तो बात बने
हिन्दू मुस्लिम तो बहुत हैं
कोई कट्टर हो तो बात बने
गरीब बनाकर रखो, दुआएं देगा
बुलडोजर चला के रखो, प्रशासन है भाई?
हां महंगाई नहीं तो मॉल कैसे
दलित पिछड़े नहीं तो इस्तेमाल कैसे
कोई न हो गुलाम तो बेमिसाल कैसे
घर-घर आग लगे तो बात बने
मौतों को छोड़ो वोटों की राह बने
एक दंगा हो तो बात बने
क्या कहते हो नेताजी
आईये चाय फाय दारू विस्की लेते हैं
सियासत में नफरत का हिसाब करते हैं
खाली घोटाला से काम थोड़ी न बनना
थोड़ा जहर हवा में घोलो तो बात बने
नहीं मीडिया मंडी है कौन कहता है
हम आप क्या कम है, सच क्या कहता है?
कोई आप हो या बाप, कोई बोलेगा नहीं
राम राज्य के बाद मंदिर बने तो बात बने
गाय भैंस मरें तो बात बने
गोलियां चलें किसी बाग में ही तो बात बने
कोई सांडर्स हो तो बात बने
अच्छा सुनो धर्म देखकर लड़की ले आना
लव जिहाद न,; ये तो धर्मान्तरण की जननी है
क्या कहते हो भईया लाठी लेकर चलो न
भड़काओं भाले से तो बात बने
एक दंगा हो तो बात बने
-प्रभात
तस्वीर: गूगल साभार

वेश्या हो तुम

घर से बाहर निकला हूँ आज
फेसबुक की दुनिया में
साहित्य को परखने
अपने तहखाने में पड़े प्रेमचंद, निर्मल के साहित्य को छोड़कर बहुत दूर
जो यातनाएं सह रही हैं किताबें
दीमक के कुतरने की
वायु प्रदूषण के रोगों की
शायद बार बार होने लगा ऐसा
जब वाई फाई से स्मार्ट फोन का गियर बदल लेता हूँ
रोजाना ही सुबह-सुबह बेड टी से पहले ही
लाईक की कुंजी लगाने जैसे ही पहुंचता हूँ
इंस्टाग्राम और हाइक और न जाने ऐसे
कितने चौराहे हैं जहाँ पढ़ने को रुकता हूँ
आज मन मलिन हो गया
जैसे कविताएं, गजल की पहली लाइन को कुछ हो गया
डिप्रेशन में कहानियां हैं तो पोर्न जैसी वीर गाथा
कविताओं के सुर ताल टीवी डॉट कॉम जैसे हो गए हैं
पीड़ित है तपेदिक से ही नहीं बल्कि 
एड्स हो गया है लिखने वालों को भी
केवल इसलिए क्योंकि
साहित्य की गलियों में घुसने के लिए दे रहे हैं
सरेआम गालियां, जो प्रोफाईल में कवि लिखते हैं अपने नाम के आगे
कहानीकार सेक्स करते हैं कहानियों में
औरतों की तस्वीरों से सजाकर अपने वाल पर
बटोरते हैं गूगल से पैसे
आखिर क्या कहें
क्या साहित्य वेश्यालय और लिखने वाला वेश्या से कम है नहीं न, तो ऐसे साहित्यकार इस चौराहे पर खड़े होकर 
धंधा ही तो कर रहे हैं
वेश्या हुए न तुम
तुम्हारे फॉलोवर्स तुम्हें खरीद रहे हैं, अश्लील कमेंट पर
लेकिन याद रखना वेश्या की मजबूरी तो समझ आती है
लेकिन इस युग की मजबूरी नहीं जो तुम्हें साहित्य की वेश्या बना दे।


-प्रभात 
तस्वीर: गूगल साभार



आभासी दुनिया

सुनो, तैयार रहना जोखिमों को ढोने के लिए
भागने वाले तो इतिहास में भी कलंकित होते हैं।


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हाँ उनके नाम में फीमेल होने की खुशबू आती है। वो अपना सेक्स फेसबुक पर बयाँ करती भी नहीं हैं। उनकी फ्रेंड सूची में अपोजिट सेक्स वालों यानी मेल की जमात लगी हुई है। वो हाल फिलहाल में पूरे संसदीय क्षेत्र के वोट लेने की हैसियत रखती हैं। उनके फॉलोवर्स की संख्या फ्रेंड लिस्ट में समाहित होने की चौहद्दी को पार कर गयी है। लेकिन लोग उन्हें कन्फर्म फ्रेंड रिक्वेस्ट करके अप्रूवल करवाने के चक्कर में अपनी जवानी निकाल देते हैं। पूरे दिन उनकी एक शब्द के पोस्ट "हाय" पर हजारों कमेंट भर जाते हैं। 
लोग उनकी फेसबुक प्रोफाइल पर लगे बच्चों और देवियों की फोटो को स्कैन करके देखते हैं। और उनकी पीछे के हिस्से जिसमें उनके बाल चेहरे को ढंकें होते हैं। फ़ोटो डालते ही वायरल हो जाता है। पता नहीं आखिर इस फेसबुक प्रोफ़ाइल को हैंडल करने वाला शायद मेल हो या फिर रोबोट भी हो सकता है, लेकिन विश्वास और अटूट श्रद्धा के चक्कर में लोग मेसेज करते हैं उनसे चैट करने की कोशिश करते हैं। उन्हें लुभाने के चक्कर में वे ऐसे कई समूह में शामिल हो जाते हैं जहाँ पैसे कमाने के लिए आसानी होती है बस उन्हें शारीरिक व्यायाम के नुख्से बताये जाते हैं। 

अभी हाल फिलहाल में अगर उनकी पोस्ट में गाली भी लिखी हो तो पर सेकेंड में 100 लाईक आ ही जायेंगे। और आप हैं ही समझदार तभी उन्हें लाईक देने का आप अपना अमूल्य समय निकाल ही लेते हैं। ये आभासी दुनिया है ही। हां साहित्यिक भाषा में इसे ऐसे कह सकते हैं कि झूठ में जीने की कला हम सबमें है। सच स्वीकार कर लें तो हार जाएंगे न। और तो और अगर कल्पना में किसी से प्रेम कर लें तो अलग ही मजा है। तो लाईक करते रहिये। कमेंट करने का सिलसिला बढ़ाइए। ढूंढ़-ढूंढ़ के उनकी पोस्ट पर कमेंट कीजिये।

बस यूँ ही


परेशानियां तो हर किसी के पास हैं। कोई बता देता है तो कोई छिपा लेता है। चेहरे के भावों को जिससे पढ़वाना चाहते हैं वो नहीं पढ़ पाता और जिसे नहीं तव्वजो देते वो आपके हर सुख दुख की कहानी पढ़ता जाता है।

जिसे हम जितना दूर फेंकना चाहते हैं वह उतना ही करीब उड़ कर आ जाता है। हवा भी उसका साथी बन जाता है। लेकिन जिसे हम पास देखना चाहते है वह टूट कर बिखेर दिया जाता है या फिर खुद ही बिखर जाता है। उसे हर कोई हासिल भी करना चाहता है, हवा को उड़ाने के लिए कुछ बचता ही नहीं है। कोई चीज जितनी सुंदर हो या मनमोहक, जिससे प्रेम हो जाए..उससे अलगाव होना उस सौंदर्य की गाथा में निहित है। खुशियां किसी भी चीज को हासिल करने के बाद अगर आती हैं तो वह खुशी नहीं बल्कि स्वार्थ सिद्धि होने में जाया की गई ख़ुशियों को पुनः पा लेना है लेकिन असली खुशी तो तब है जब वह परेशानियों के साथ ही उसमें खुश रहने की वजह ढूंढ़ लेता है।
तस्वीर: गूगल साभार


अंदाज ए बयां


सुनो,अगर इस जहाँ में मेरी चाहत की कद्र न हुई, तो मुझे जो चाहते हैं उनकी हिफाजत न होगी
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"शिकायत ये नहीं कि तुम हो नहीं अब बस दर्द ये तो पुराना हो गया।
रिश्ते नाते सब छूट गए ही हैं, फासलों का क्या सब बढ़ना बढ़ाना हो गया।
अब गुजर रहा जमाना बस तुम से बिछुड़कर तो पहचाने कौन मुझे उस तरह से
गले लगकर मिले थे जो, अब उसको चाहे भी अरसा पुराना हो गया।
तन्हाइयों का सिलसिला तो बस यूँ ही गुजर जाए तो बात भी क्या होगी
जब तुम्हें देखे बिना मुस्करायें या रोयें तो समझो दर्द भी पुराना हो गया।
-प्रभात
ये गजल भी सुनते जाइये:
https://youtu.be/4EE_ebfaOlI
Songs - Jagjit and Chitra
तू नहीं तो ज़िन्दगी मैं और क्या रह जायेगा
दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जायेगा
दर्द की सरी तहें और सारे गुज़रे हादसे
सब धुआँ हो जायेंगे एक वाक़िया रह जायेगा
यूँ भी होगा वो मुझे दिल से भुला देगा मगर
ये भी होगा खुद उसी में इक ख़ला रह जायेगा
(ख़ला = अकेलापन)
दायरे इन्कार के इक़रार की सरगोशियाँ
ये अगर टूटे कभी तो फ़ासला रह जायेगा
(सरगोशियां- कानाफूसी)
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-गूगल साभार 

सुनो मेरे ब्रेन में कुछ हो गया है
उन्होंने पूछा: क्या?
मैंने एक रेयर सिंड्रोम का नाम बताया
उन्होंने कहा: कि मुझे पता था तुम ज्यादा सोचते हो, एक काम करो ये जो कविताएं वगैरह लिखते हो न, इसे बंद कर दो। ज्यादा न सोचा करो प्लीज मेरे लिए.....(बहुत क्युट रिप्लाई)
मैं विज्ञान का थोड़ा बहुत जानकार तो हूँ ही, लगा कि हाँ लैमार्क साहब की आत्मा काश जिंदा होती अब भी, वही तो बताए थे न जिस चीज का ज्यादा प्रयोग करोगे उसमें वृद्धि हो जाएगी। मैंने यही तो किया दिमाग का इस्तेमाल ....अब हँस भी लो
जिराफ देखो कूद-कूद के बढ़ गया है.....
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मैंने देखा तेज चिल्लाने पर लोग सुनते हैं
यही संबंध है मीडिया और मौत में
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हाँ मैं चाहता हूं, मेरी कविताओं का कत्ल हो जाये
ताकि अखबारी हो जाऊं मैं...
#प्रभात

तितली नहीं जिलाना है


एकदम नया प्रयोग "अब बच्चे तितली रानी, तितली रानी, देखो कैसे करती मनमानी.... थोड़ी न पढ़ेंगे।"
अब तितली नहीं जिलाना है
फूलों को दूर भगाना है
बच्चों को खूब पढ़ाना है

तितली जब आती थी
उड़ उड़ कर खूब सताती थी
कॉपी पर आ जाती थी
पेन से नहीं लिख पाते थे
अब यही एक बहाना है
बच्चों को खूब पढ़ाना है
पेड़ों को कट जाने दो
ऑक्सीजन मास्क आ जाने दो
हवा से खर खूदर आ जाते हैं
उड़ कर नाक में जम जाते हैं
इसलिए एसी हरदम चलाना है
बच्चों को खूब पढ़ाना है
मोबाइल कितना उपयोगी है
स्मार्ट गुरु और योगी है
सेल्फी से स्माइल आती
एक कमांड पर फाइल आती
योगा खूब सिखाना है
बच्चों को खूब पढ़ाना है
दूध-दही तो कच्चा माल है
ड्रिंक में सारे तत्व इस्तेमाल हैं
आश्रम से सजीव मैगी लाऊँगा
मुफ्त में अकाउंट खुलवाऊंगा
कर्जा बिना पैसे के लेना है
बच्चों को खूब पढ़ाना है
तस्वीर: गूगल साभार

योगी जी सुनिए


योगी जी को सादर प्रणाम,
अपने गोशालाओं से निकल कर गायों के अच्छे दिन देखिए। याद रखिये गाय, बैल और सांड जो गोमाता के अलग-अलग प्रारूप हैं उनकी इस तरह से निर्मम हत्या का मामला दर्ज हो तो बचाने से ज्यादा केस आप पर 302 के तहत मारने के जुल्म में चलाये जा सकते है यदि गाय को भी उच्चतम न्यायालय मनुष्य की तरह मौलिक अधिकारों से सुसज्जित कर दे जैसे नदियां और पर्वत जिन्हें लिविंग एंटिटी मान लिया गया है।
लेकिन आप गायों की इस राजनीति में कब चाहेंगे कि वो इंसान की तरह जीने का अधिकार पाए। आप चाहेंगे कि उन्हें भगवान का दर्जा देना सबसे सही है। क्योंकि आप विरासत में मिले सनातन धर्म के अनुवाई हैं यही न। हां भाई मंगरू और झगरू तो इंसान से जानवर की श्रेणी में आ जाएंगे यदि वे अपनी किसानी के चक्कर में खेतों से लाठी मार कर भगा दें।
मैं आप सभी महान टीवी चैनलों और प्रिंट मीडिया के पत्रकारों से पूछना चाहता हूं कि आप कब दिखाएंगे कि गोमाताओं के इतने अच्छे दिन आ गए हैं कि उन्हें कहीं लंगड़ होकर बैठना पड़ रहा है तो कहीं कराहते हुए दिन गुजारने पड़ रहे हैं। किसानों की फसलों की दुर्गति के बारे में कब बताएंगे। सड़कों पर हो रहे हादसे के आंकड़ों को कब बताएंगे। या ये सब छोड़कर केवल मोदी-मोदी, राहुल-राहुल, योगी-योगी, केजरी-केजरी, माया-माया, अखिलेश-अखिलेश....इन्हीं के बच्चों जैसे बयानों पर कोहराम मचाते रहेंगे। तोड़-मरोड़कर तब तक दिखाएंगे जब तक किसान कर्जे से डूबकर आत्महत्या न मार ले।
*सड़कों पर इनके जत्थों को लेकर क्या कहना है? क्यों गायें आजकल देहातों में खुलेआम हजारों की संख्या में घूम रही हैं? योगी जी आपके पास इनकी जनसंख्या को लेकर कोई योजना है?
*किसानों की फसलें जितनी बर्बाद हो रही हैं उनकी भरपाई आप देंगे?
*इनकी वजह से हो रही गायों और इंसानों की मौतों का जिम्मेदार कौन है आप या डीएम?
*क्या नीतियां बनाने वाले केवल राम जन्मभूमि का मंदिर बनवाने में लग गए हैं?
*अगर आपको नीतियों के बारे में अब भी कुछ कहना है तो आईये आपको उन्हीं गायों की राजनीति के बाद का हश्र दिखाते हैं। भालाओं से गहरे घाओं को देखकर आप का दिल अगर इंसान का होगा तो तड़प उठेगा।


-प्रभात 


घर से लाईव


आज आपको अपने घर के पिछवाड़े सीधे लाइव ले जाते हैं। वैसे पूरी जगह तो नहीं जो भी बची खुची है उतने में कुछ पेड़ अभी भी विरासत में उपहार स्वरूप दादा जी के अलविदा कह देने के बाद बचे हैं। सबको दिखा पाना भी अभी मुमकिन नहीं है। लेकिन पुरखों के बाद हिस्सेदारी में घर परिवार के बर्तन और इन नैसर्गिक फलों के अलग हो जाने के बाद अब केवल मेल जोल आंखों की आंखों से ही रह गया है।



किस्से सुनाने हो तो आप कभी घर आइएगा तो आपको एक तरफ टूटा फूटा बैलगाड़ी का पहिया मिल जाएगा जिसको घर के पुरातत्व वेत्ताओं द्वारा संरक्षित इसलिए किया गया है क्योंकि इसकी नीलामी आज तक बैलों की जोड़ी चले जाने के बाद नहीं हो पाई। एक ओर आंगन की दीवाल केवल रबीस (मोरंग जैसा जो भट्ठों पर से निकलता था) और कुछ ईट से बने हुए अभी भी वैसे ही खुले आसमान में किसी टीले की तरह खड़े होकर मुसकरा रहे हैं जैसे मोहनजोदड़ों की सभ्यता के कुछ नींव। एक दरवाजा जो चरमराता है वह दीवाल में कब्जा से इस तरह लगा है जैसे जयपुर के किले की दीवार। आंगन में आजकल मुगल गार्डन की तरह कुछ पुष्प खिले रहते हैं। भूसे वाला मकान नहीं है लेकिन उसकी खिड़की आज भी वैसे ही खुली है जैसे उसमें अब भी भूसा बचा हुआ हो।
आंगन के बाहर आम की कई प्रजातियां हैं जिन्हें आप शायद पहली बार सुनें क्योंकि ये हर घर में कुछ मापदंडों के आधार पर वर्गीकृत करके नाम दिए जाते थे। उन्हीं में से कुछ नाम हैं- कोनाहवा यानी सीमा देखने पर कोने वाला पेड़, गड़हवा यानी गड्ढे में जबकि गड्ढा पट चुका है लेकिन नए गृह वैज्ञानिकों ने इन पर शोध करने की हिम्मत नहीं जुटाई क्योंकि अब तक ये पौधे एंडेन्जर्ड प्रजातियों में आ चुके थे। जिन पर शोध कार्य पर घरकारी प्रबंध लग चुका था। पहले तो हम बच्चे थे लेकिन बहुत ही अनूठे वैज्ञानिक पैदा हुए थे हाथ में बसूला, कुल्हाड़ी आया नहीं कि पुराने, नए क्या सभी प्रकार के पौधों को तेजी से काट कर अनुप्रस्थ काट का सचित्र वर्णन किया करते थे। इसी वर्णन करते हुए दादा जी दूर से ही डायरेक्टर की तरह बोल पड़ते अरे नालायक, उजड्यो तुम्हें कुछ पता है कितनी मेहनत के बाद ये इतने बड़े हुए हैं और तुम अंडरवीयर खोल के चल दिये गेड़ासे लइके। अरे उनके अम्मा सुनत हाऊऊ........खैर ऐसे ही कई प्रजातियां लगी हुई हैं। अमरूद की प्रजातियां ललगुदिया यानी लाल गूदा वाला, पनिहवा यानी पानी में जो वर्ष के ज्यादातर समय भरा रहता था।
एक पेड़ शहतूत यानी मलबरी का भी होता था। धूप नहीं आती थी। यह पेड़ अन्य मुख्य पेड़ आम, आंवला, करौदा और अमरख के बीच में होने की वजह से एक तो वैसे ही बढ़ ही नहीं पाता था। दूसरे उसकी टहनियां किसी तरह से तड़प तड़प कर जब थोड़ी बड़ी होती थीं तो आम के चक्कर में दादाजी की नजर में आते ही कट जाया करती थीं और हम उसके बाद उसके जड़ की कटे घावों पर मरहम लगा कर घण्टों शोक मनाया करते थे। आज तक अपनी जान बचाएं वह भी खड़ा हुआ है। क्योंकि दादाजी आज नहीं हैं। हालांकि और मुख्य पौधे आज दादाजी के न होने की वजह से उनके साथ ही चले भी गए।
यही बस कुछ बची खुची विरासत है। सरंक्षण का काम करने के बावजूद। बाकी तो न जाने कितनी चीजें हम खो चुके हैं पाने की तुलना में। जैसे कुएं, तालाब, डिहरी, डोलची, छप्पर, चरवाहा, दहिया वाली, दिया वाली, गोबर की लिपाई, बरहा पानी, गौरैया, चूल्हा......
तस्वीर- प्रभात 


वाह ! वाह !!! क्या शेर हैं


फेसबुक पर आकर वो अब भी ढूंढ़ती है मुझे
मुझे इस तरह तन्हा करके उसको सूकून कहाँ

चाँद का दीदार करने को घंटों इंतजार करती है वो
इश्क़ का मुझसे इजहार कुछ इस तरह करती है वो


भीड़ में देखा उसको इस तरह बेचैन होते हुए
उसको मेरी सूरत देखने की ललक हो जैसे


मेरे माथे की लकीर को पास से पढ़ गई है वो
हर किसी के जिस्म पर खोजने से मिलती कहाँ

वो हवा हो गए


जमाने ने कितनी तरक्की कर ली
जो जितने करीब थे, वो हवा हो गए
उनकी आंखों के आँसू अब मेरे साथ हैं
हमें गम देके, वो बेवफा हो गए
अश्क पर तेजाब डाल कर चले जाएंगे
तस्वीर पूजते थे, अब इतने खफा हो गए
मेरी बाहों में हाथ डालकर चलने वाले
पहचानेंगे कैसे, गैर के वो हमनवां हो गए
मेरी कलम को पकड़ कर चलना सीखे जो
बड़ों की शोहबत में हैं, किस्से दफा हो गए


बस यूं ही***


बस यूं ही***
हम तो किसी से बेवजह बात नहीं करते
झूठ नहीं बोलते तो सच भी नहीं कहते

जिंदगी में गम की बारिशों ने डुबोया बहुत
खुद नहीं डूबते तो डुबोया नहीं करते

इश्क़ का तोहफा कुबूल हम कैसे करें
वो मेरा नहीं करते तो हम कैसे करते
-प्रभात


मिलेगा ही


जरूर पसंद आएगी। पढ़िए मेरी रचना हौसलों पर नया अध्याय लिखती।
कभी निराशा तो कभी आशा जीवन के दो पहलू हैं दोनों दिखने चाहिए तभी सुखद जीवन की अनुभूति होगी।
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अन्धकार है अभी तो प्रकाश एक दिन मिलेगा ही
रात में जूगनू और तारों के बाद सूरज खिलेगा ही
हैं पुष्प जो खूबसूरत, काँटों से दबे चीखते ही हैं
कुछ कीचड़ के आगोश में कई सुमन पनपते हैं ही
कोई बीज नहीं जो यातनाओं को निरंतर सहन कर ले
आंधी, बारिश, धूप में फटकर एक दिन जमेंगे ही
कोई पहाड़ है तो उसे खाई से लड़ना आएगा ही
किसी बिगड़े हुए को कोई अच्छा तो भायेगा ही
सरोवर की पहचान है न बहना तो उसे गम क्यों हो
गम है तो नदियों को भी जो रोकर समंदर में मिलती हैं
किसी जगह पर मिलना तो कहीं पर बिछड़ना है ही
पर्वत से निकलकर अकेले झरने को बहना तो है ही
किसी बीज को वृक्ष बनने का वक्त आएगा ही
पतझड़ के बाद कोपलों का निकलना तो भाएगा ही
साहस समंदर का रीफ बनकर काई दफन कर लेती हैं
पत्थरों के जख्म से ताजमहल में इबादत होती है
इस अटूट विश्वास के साथ चलना जरूरी भी तो है
गुलाब को काँटों के बीच खिलकर महकना तो है ही
#प्रभात
तस्वीर: गूगल साभार


सियासत


बाएं दाएं सब खेलि के करौ न प्रतिमा नाश
गांधी, लेनिन के नाम पै होई जाई सत्यानाश
#सा सत

दिवस इवस से नाता जोड़ि, दियो बाजार बनाय
कुछ मेहरारू कै मनई कहि लावत हयो समभाव
#सा सत

मैं बोला: जो रोता, चीखता है, चिल्लाता है वो कवि कहलाता है
वो बोले: जो रुलाता है, चीख लेता है और चोच चलाता है वो कवि कहलाता है
देख ल्यो भईया केपहर विश्वास बायhttps://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/f27/1.5/16/1f600.png😀

बस इतनी सी #सा सत (सियासत) है...
सड़क पर मार्च होगा, कैंडल लाइट भी जलाएं जाएंगे
सत्ता पर सियासत होगी, विरोधी गुट बनाएं जाएंगे
नेता का कोई बयान आएगा, घर-घर जलाए जाएंगे
भड़काने वाली मीडिया होगी, हिंसा करेगी जनता
और फिर??
गरीबों पर अत्याचार होगा, हजारों मारे जाएंगे
एक दिन सरकार बदलेगी फिर गद्दी पाने की सियासत
और फिर??
शुरू होगा जनअभियान, मार्च और आंदोलन भूल जाएंगे
लोकतंत्र में सरकार बनेगी, और फिर वही गद्दी से उतारे जाएंगे।