Tuesday 10 October 2017

जाने दो

 *जाने दो*
वो जाते हैं तो चले जाने दो
कभी किसी को पछताने दो
मुड़ कर देखो मत कुछ
उनको भी आगे बढ़ जाने दो
कितना भी मुश्किल आए
लबों को मुस्कुराहट लाने दो
पढ़ लो अनगिनत कहानियां
दूसरों को खामोश हो जाने दो
ढूंढ लो एक रिश्ता और किसी में
किसी रिश्ते को बिछड़ जाने दो।
रास्ते हर बार नई आने दो
कदम अपने रुक न जाने दो
हार हो तो स्वीकार कर लो
किसी की जीत तो हो जाने दो
आंसुओं को कभी रोको नहीं
इन्हें वक्त पर निकल जाने दो।
लम्हा-लम्हा यूँ ही जीते चले जाओ
जो जुड़ते है उन्हें जोड़ते जाओ
कभी अंत होगा जो याद बनेगी
गुजरे पल कोई तो गुजर जाने दो
किसी को इतिहास बन जाने दो
वर्तमान को अतीत बन जाने दो
-प्रभात



लिखने लगा हूँ मैं

लिखने लगा हूँ मैं ..जो सहने लगा हूँ मैं
आदत सी हो गयी... अब जो कहने लगा हूँ मैं
कसमें है वादें है झूठे... खाने लगा हूँ मैं
होश में भी आके मैं... सब बताने लगा हूँ मैं
फ़िक्र नहीं है खुद की भी...तो गाने लगा हूँ मैं
बड़े बदनसीब बनकर आये है हम-2
जीने के लिए सारी... जिन्दगी भी है कम
चलते चलते सपनों में ....खोने लगा हूँ मैं
दुनिया वालों मेरी सुध भी ले लो-2
हंसने -गाने के सुख भी दे लो
जाने कहा से अब.....डरने लगा हूँ मैं
सहने लगा हूँ .....बस कहने लगा हूँ मैं



कह नहीं सकता

कुछ कहना था आज तुमसे, लेकिन आज कह नहीं सकता।
हां थोड़ा बहुत मज़ाक और कुछ अपना ज्ञान बांट नहीं सकता।
आज मैं तुमसे कुछ कह नहीं सकता।
कुछ बचे हुए सवाल नहीं कर सकता और अब जवाब
ढूंढ नहीं सकता।
जो वादे थे वो चाहकर पूरा कर नहीं सकता।
हां कुछ उलझनें तुम्हारी सुन सकता हूं मगर उन्हें मिटा नहीं सकता।
आज मैं तुमसे कुछ बाँट नहीं सकता।

#मजबूरियाँ# जीवन की सच्चाई#



तुम थे जमाना था

तुम थे जमाना था, जमाने में सब कुछ था
यकीं मानो कुछ नहीं, तो आईना भी खुश था
अब तो सिरदर्दियाँ इतनी है, धूप में भी बादल है
बादल की गरज और बिन मौसम बरसात है
जब भी तुम्हें सोचू, लगता है वहीं सब कुछ था
तुम थे.....

अक्सर जब तुम्हारी जुल्फें दिखती हैं
काली आंखों से तुम्हारी नजरें मिलती हैं
हल्की सी मुस्कुरा देती हो बेसुध हो जाता हूँ
ये सब कहीं और नहीं आईनें में होता है
आँखें अब भीग जाती हैं, पहले गम न था
तुम थे......
हर तरफ तुम्हारे इशारे पर लेता हूँ करवटें
तुम्हारे जाने पर भी तुम्हारा नाम है लबों पर
जितना मैं सोचता हूँ, बता दूं तो सच न लगेगा
दुनियां पागल समझती है, तुम्हें भी लगेगा
सुखाने को आंसू, तुम्हारा चेहरा काफी था
तुम थे......
प्रभात
#सचनामा
तस्वीर गूगल साभार
 23/09/2017


दर्शन पिछले दशक का

प्रिय फेसबुक, मेरे लिए तुम एक ऐसे डायरी के पन्ने की तरह हो जो पूरे दिन का हिसाब किताब सबके सामने रखते हो। बस दिक्कत ये है कि तुम्हें पीछे जाकर पलटने में बहुत दिक्कत होती है, फिर भी ऐसा लगता है कि तुम कुछ वर्षों बाद कोई न कोई मेमोरी मेरे सामने भेज ही दोगे।
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दर्शन पिछले दशक का
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छुट्टी का दिन है और होता भी क्या है इस दिन। हफ्ते भर की ऑफिस की थकान मिटा लूं । सोचते तो अक्सर हम सभी हैं। लेकिन आज क्या हर हफ्ते की कहानी ऐसी है कि थकान अगले दिन ही मिट पाती है। घर के राशन पानी लाने से लेकर पहनने तक के कपड़ों का बंदोबस्त अगले पूरे हफ्ते भर के लिए करना होता है। नींद खुलने के बाद अंगों का मशीनीकरण इस कदर हो जाता है कि कपड़े साफ करने और घर की सफाई करने के बाद कमर टूटने लगती है। कभी नहीं सोचा था कि ये जिम्मेदारियाँ शादी होने के पहले भी आ जाती हैं।

आज के दिन मेरी सुबह उस समय हुई जब सूरज बीचो-बीच आकर अस्त होने के लिए थोड़ा करवट बदल रहा था। रात में आफिस का काम करने के बाद मानो सब कुछ बदल गया है। सूर्योदय देखे अरसा बीत गया, और तो और कोयल की कूंक और कौवों का कांव सुने तो पूरे एक दशक हो गए। सब अच्छा लगता है। हां फिर भी सब अच्छा चल रहा है। दिल्ली है यहां तो जबसे कमरे के अंदर बल्ब की रोशनी मिलने लग गई तब से आज तक सूरज की रोशनी का अर्थ ही अप्रासंगिक हो गया। किसी प्रकार पिछली रात को सोने का मतलब मेरा यही होता है कि सुबह हो गई, यानी रात जो सोया करते थे आज कल सुबह नींद आती है और उसे हम अनायाश ही बोल देते है "रात"....मुझे लगता है कि अगली पीढियां हमारी कहांनियों में रात दिन का अंतर करना भूल जाएंगी।
सुबह सो कर उठने का टाइम वही करीब दोपहर के एक बजे रहा होगा। जल्दी से नित्यक्रिया का काम निपटाने के बाद अचानक ही बिना किसी योजना के अपने पास के नार्थ कैंपस जहां पर पूरा एक दशक गुजर गया, वहां जाने के लिए निकला। सबसे पहले मॉडल टाउन होते हुए पटेल चेस्ट की रेड लाइट पर किंग्सवे कैम्प होते हुए पहुंचा, तो एक दृश्य याद आया.....
"अरे प्रभात जल्दी आओ, हम 7 लोग फाइल बनाने आये है, कैफे हैं आ जाओ...यहीं बैठकर फाइल कंप्लीट करते है।" यह मित्र आज आजमगढ़ हैं और मुलाकात को कई वर्ष हो गए।
अंग्रेजी के गाने और एक कॉफी के साथ इतने जल्दी फाइल टेपते हुए पूरी हो जाती थीं कि आज याद करके लगता है कि वहीं पर फिर लौट जाऊं"
कैम्प से आगे पटेल चेस्ट के नाले के पास पहुँचकर नाले के दुर्गंध के बीच एक मयखाने के दृश्य की झलक देखने को मिलती है....
"सीढ़ियों पर चढ़चढ़ कर बुरा हाल हो गया और मीरा मेरा पिछले आधे घण्टे से इंतजार कर रही थी। मेरे पहुंचते ही मानो उसे सांस में सांस आया। वह खुश हो गई। मीरा के पास पहुंचकर सबसे पहले लगा कि वह कितने दिनों पहले से उसे जानता है। शाम को धीरे - धीरे जब मयखाने से महुए की खुशबू आने लगी तब उसने मीरा को भी उसमें मदहोश कर दिया। मैं तो हर बार की तरह मयखाने की मदहोशी से बच निकला लेकिन नए साल के पहले दिन मानो उसका असर मुझ पर भी इतना गहरा पड़ गया कि वह दिन आज भी याद कर मेरी सांसें ऊपर नीचे होने लगती हैं।"
क्रिश्चियन कॉलोनी के पास का एक दृश्य
"आज खुशी इतनी थी कि लगा कि जिंदगी का असली मतलब यही है। एकता का अर्थ तब समझ आया। एकाकी का अर्थ अब समझ आया। वे दिन जब उबर ओला के इंतजार ने हम सबको एक साथ कर दिए थे। उबर में बैठे मुझे ऐसा एहसास होने लगा था कि यह हमसफ़र यूँ ही बना रहेगा। गाड़ी की रफ्तार कम न हो। यह पल यूँ ही रुक जाए। यही सोच रहा था, लेकिन होना तो ये नहीं था। बिखराव भविष्य को मंजूर था...."
अब मैं अपनी स्कूटी को क्रिश्चियन कॉलोनी से आगे जंतु विज्ञान विभाग की ओर बढ़ाता हूँ..
काल करता हूँ, मित्र का फोन नहीं लग रहा था
सो लैब सीधे पहुँचता हूँ, एक सज्जन टकराते है......सर हेयर यू आर रिसर्च स्कॉलर...आई वांट यू टू डिस्कस अबाउट सीएसआईआर एग्जाम...यू आर जेआरएफ....व्हाई यू र नॉट ट्राइन्ग.... इवेन यू डिड योर एमएससी इन बॉटनी फ्रॉम डीयू.....आई केम हेयर टू प्रीपेयर नेट आफ्टर सिविल प्रीप्रेशन। सारे प्रश्नों के जवाब देने का मतलब अपना पूरा दिन खराब करना था। सिंपली आई एम डूइंग समथिंग एल्स....
खैर अब उनसे पीछा छुड़ा अपनी साथी से मिलकर किसी तरह जंतु विज्ञान विभाग से बाहर आता हूँ। खबर मिलती है कि आपके एक मित्र असोसिएट प्रोफेसर बन गए है...सोचा कि कॉल मिलाता हूँ मुलाकात हो जाये....खैर पता चला वो अभी बाहर है...फिर वनस्पति विज्ञान विभाग की ओर मुड़ता हूँ और पाता हूँ कि मैं अभी कितना अकेला हूँ। दो चार साथी जो मेरे कभी बहुत करीब हुआ करते थे आज वे बिल्कुल भी टच में नहीं है और फोन लगाने पर लगा भी नहीं। मुलाकात तो किसी से नहीं हो सकी.....केवल एक दृश्य पुनः आंखों के सामने आता है
"परीना और मैं दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े चले जा रहे हैं नहीं पता था कि ये हाथ यूँ ही कभी एक दूसरे से मिलेंगे पता तो कुछ भी और नहीं था लेकिन इस समय को आगे बढ़ाते हुए मुझे वह पल याद आया जब परीक्षा के बाद चाय पर शाम को कप सटाये सब एक दूसरे की ओर देख रहे थे"
अब वनस्पति विज्ञान विभाग की ओर से होते हए आर्ट्स फैकल्टी के गेट पर पहुंचा
एक दृश्य पुनः आंखों के सामने आया
"चलो आज हम सब रिपोर्टिंग कर लेते हैं, सीआरएल की ..तुम लिखो, और मैं पूछता हूँ ...प्रश्न....ज्ञान देने वाले भी लोग बहुत मिले थे"
हां वह पल भी था, जब एक दिन हंसराज होस्टल से करीब 12 बजे रात को मित्रों से परेशान होकर आंखों में आंसू लिए बक बक करता खुद से विवेकानंद की मूर्ति के पास बैठा आसमान को देख रहा था, इतना ही नहीं वह दिन भी याद है जब पिता जी जेल में थे और मुझे यह खबर सुनकर रोना आ रहा था....खूब रोया था उस दिन विवेकानंद की मूर्ति के पास बैठकर।
अब स्कूटी की रफ्तार तो कम हो गई थी....लेकिन इस भंवर से निकलकर लगा कि एक बार को माल रोड चल लिया जाए...सबसे पहले गवायर हाल जहां मैंने अपने 2 साल बड़े मस्ती से गुजारा था। वहां आकर नाई की दुकान के पास दाढी बनवाने पहुंचा...
अक्सर हर बार जब भी इधर आया तो इसी सैलून पर आया, मानो इस सैलून और नाईयों से काफी अच्छा दिल का रिश्ता है जो कभी छूटने देता ही नहीं।
रविवार के दिन तो अक्सर हर हफ्ते आकर इसी सैलून पर ए आई आर एफएम के गानों के साथ बाल कटाने बैठ जाता था
अब दिल किया, क्यों न वीकेआरवी के पराठे और चाय पर चल लिया जाए... आलू प्याज और पनीर के पराठे एयर गर्म चाय की चुस्कियों के बीच वह चारू के साथ का बीता वक्त ध्यान आ पड़ा
"चारू पता नहीं क्यों मुझे देखे जा रही थी और वह मुझे इस ओर इशारा कर रही थी कि तुमने जो बीते पलों को अपने साझा किया उन पलों के अतिरिक्त इस पल को भी समेट लो जिसके बाद हम और तुम इसके बाद शायद एक दूसरे के बेहद करीब हो जाएंगे।...हुआ भी यही हम वह शाम कैसे भूल जाएं जब नेट का एग्जाम देकर घंटों शाम को इसी कैंटीन में बैठ एक दूसरे की ओर मुस्कुरा रहे थे।"
अब साँझ ने तो मुझे इतना डुबो दिया कि मैं सोचने लगा कि यहाँ दुबारा किसी से मुलाकात न होगी बस यादों में ही ये मुलाकात कितना घुमाएगी।
इसके बाद मुखर्जी नगर की ओर मुड़ा एक किताब की खोज में घंटों बाद नेहरू विहार के नाले की ओर देखने लगा....वही नाला जिसके पास से आते जाते उन पन्नो को उल्टा करते थे जिनके लिए परीक्षा केंद्र कभी यूपी के इलाके तो कभी राजस्थान और एमपी टहलाया करते थे। वो दिन भी याद है जब मेरठ परीक्षा देने के लिए सुबह 4 बजे मुखर्जी नगर में बस में बैठा था और बस खराब हो गईं थी। मेरे मित्र परीक्षा के एक दिन पहले नींद की इतनी भयंकर गोली ले लिए थे कि उनसे उस दिन परीक्षा हॉल में पहुँचा ही न गया। दिन भर वो सोते रहे।
खैर इन यादों से मुलाकात हो गईं तो लगता है वो बीते दिन लौट आए ....लेकिन ये दिन जो लौटे हैं, वो कभी खुशियां देती हैं तो कभी उन्हीं के साथ खूब रुलाती हैं। बहुत मुश्किल है इन्हें भुला पाना। उससे भी ज्यादा मुश्किल है लोगों को भूल पाना। जो आज हर स्थानों पर अपनी पहचान छोड़ गए हैं। स्कूटी से चलना क्या पैदल चलना दूभर हो जाता है जब इन यादों के चक्कर मे पीछे हॉर्न बजाते रिक्शे, कार, ट्रक सब मुझसे परेशान हो जाते है और कभी कभार मुझे कुछ देर बाद समझ आता है कि मैं यादों से सड़कों पर गुजर रहा हूँ न कि किसी के साथ ।
-प्रभात
15/09/2017