Saturday 27 May 2017

मोबाइल पर अंगुलियां चलने लगी है

विश्व पुस्तक दिवस विशेष: 23 अप्रैल 

कल विश्व पुस्तक दिवस था। किताब पर ख्याल आया कि आज बस्ते में किताबों की जगह लैपटॉप दिखते है..शायद डिजिटल क्रांति का महत्व तो दिखाई देने लगा है लेकिन हमने बच्चों के चम्पक, उनकी पाठ्यपुस्तकों के अनार के दाने वाले पन्ने, पेंसिल और कलम दवात छीन लिए। इस तरह हमने उनसे साहित्य, श्रुतिलेखन, कला, रूचि जैसी चीज़ें भी छीन कर सब कुछ यहां तक कि उनका जीवन भी तो छीन लिया ही है। क्योंकि डिजिटल की तरफ अंधी दौड़ में मोबाइल पकड़ाकर उनसे उनका हंसता खेलता स्वस्थ बचपन भी छीन ही लिया है।

साक्षर हो गए इस कदर हम कि बस
मोबाइल पर अंगुलियां चलने लगी है
फेसबुक पर जब से रहने लग गए
दोस्तों की लंबी लिस्ट बनने लगी है
आंखों के इर्द गिर्द काले धब्बे बन गए
नींद की गोली भी बेअसर होने लगी है
टीवी सीरियल के दीवानें बन गए ऐसे
अच्छे रेडियो बाजार से हटने लगे है
व्हाट्सएप के हंसगुल्ले में मस्त हो गए
जबसे इमोजी भी बेवजह डलने लगे है
न्यूज पेपर भी पढ़े जैसे अरसा हो गया 
अब खबरें हम सनसनी खोजने लगे है
अंगुलियां स्क्रीन पर कलम बन गयी तो
डायरी भी दुकानों से गायब होने लगे हैं
फेसबुक की पढ़ाई में पढ़ना भूल गए
किताबों की फोटो क्लिक करने लगे है
साहित्य है बीसी, एम सी की साईट पर
अच्छे उपन्यासों से रिश्ते छूटने लगे है

#WorldBookDay
-प्रभात

Thursday 25 May 2017

"तुम बिन"

"तुम बिन"
कोई रात नहीं जो गुजरी हो तुम बिन
कभी सपने में आकर 
खूब जोर से चिल्लाते हो
कभी साया बनकर
पीछे देखे जाते हो
वो हंसी नहीं आयी चेहरे पर तुम बिन
कोई रात नहीं .......
कितनी प्यारी शाम हुई थी
जब आंखों-आंखों में बात हुई थी
जाते-जाते कह दिया था
तुम मेरे अपने हो
जैसे तुमने हर लिया था
जो भी कभी दर्द मिला था
शब्द अब एहसास बन छू रहे तुम बिन
कोई रात नहीं........
जब-जब भीगें नैन हमारे
तुमसे मिलकर भूले गम सारे
साथ रहें कभी सोंचा न था
न रहकर भी थे साथ तुम्हारे
थी गुजरी रातें तेरी बाहों में 
याद है वो आंखों के इशारे
मयखाने की ख़ुशबू ले सो रहे तुम बिन
कोई रात नहीं........

-प्रभात

Thursday 4 May 2017

प्रेम के शब्द

नहीं पता था कि दिल्ली और लखनऊ की इमारतों में क्या फर्क है। उत्तर प्रदेश का पिछड़ा जिला बस्ती से आया हुआ एक साधारण सा बालक जो जो देखा सब कुछ चाँद, तारे को करीब से देखा हुआ सा प्रतीत होता। सब कुछ असहज था जितना सहज वह था उतना सहज कोई हमउम्र का लड़का मिलना तो दूर की कौड़ी थी। वक्त में जो सुबह अर्थात भोर था वही सुबह उसके नाम से उसकी बातों में दिखता था। हर तरफ से सूर्योदय ही दिखाई देता था। वो कॉलेज का इमारत तो मानों उसने कभी ब्लैक एन्ड वाईट टीवी में देखा था वह भी याद नहीं। कुछ देखा था। लग रहा था कि सब सपने है। उसकी बहुत कोशिश थी कि वह अपने माँ - बाप को सब कुछ दिखा दे। लेकिन दिखाना तो दूर कह कर बताना भी नहीं आता था। अवधी के शब्द तो ठीक से चल नही रहे थे। खड़ी बोली वह सीख रहा था। शांत चित्त होकर जब कॉलेज के क्लासरूम में बैठा हुआ श्यामपट्ट को निहार रहा था। तो ज्यादातर बार निगाहें दूर हो जाती थी। ऐसा इसलिए कि उसने कभी किसी लड़की को देखा ही नही था। और ज्यादातर लडकियां श्यामपट कर सामने से गुजर रही थी। घर के माहौल का उस पर इतना असर था कि नजरें लड़कियों की परछाईं पड़ते ही दूर चली जाती थी। लेकिन उदास चेहरा लेकर सीट पर बैठा ही था कि इतने में लगा कोई पास आ गया। उसने सुना "हाय"। पहली बार लगा कि कुछ मांग रही है। उसने हंस दिया लेकिन गंभीरता से पूछा क्या कहे? बहुत धीरे से कहने के बाद वह इतना डर गया कि उसका माथा पसीने से भीग गया। लड़की ही थी जो उसे देखकर तुरंत पूछा योर नेम। थोड़ी बहुत अंग्रेजी पता था। सो समझ तो गया उसने तपाक से कहा कि "सुबह सन ऑफ डॉ आकाश"। वाउ वेरी नाइस। इतना कहकर वह चली गयी। सुबह ने शायद पहली बार किसी को पास आकर इतना कहते हुए सुना था। वह पलट कर पूछ नही पाया था कि आपका शुभ नाम क्या है? लेकिन क्या करता वह इतना ही तो कर सकता था कि वह दूसरे दिन का इंतजार करता।
दूसरे दिन सुबह ने देखा पूरे क्लास में वह लड़की कहीं पीछे बैठी हुई दिख रही थी। उसने मन ही मन में कहा क्या हुआ लगता है मैंने ढंग से बात नहीं किया या उसका लेवल थोड़ा ऊंचा है जो मुझसे आज कुछ बोली नहीं। कैसे लोग है एक दिन पास आकर बोलते है और दूसरे दिन कोई जानता भी नही। ये सब मन ही मन सोंच रहा था। ये भी सोंच रहा था कि नाम तो पूछ लूं लेकिन हिम्मत न हुई। सुबह के साथ सुबह होने ही वाली नही थी। ऐसा सोचकर फिर वह वापिस होस्टल के कमरे में चला गया। और सोंचता रहा कि उसने आखिर बात तो किया। बात ही तो किया था। अब तक ये भी पता चल गया था कि वह काफी सुंदर नहीं थी, लेकिन सुंदर थी मेरे लिए। उसकी लंबाई काफी नही थी। लेकिन उसकी आवाज में एक जादू था। उसके हाव भाव मेरे से लग रहे थे। पर क्या सचमुच मेरे जैसे? मन मे इतने सवाल लिए सुबह, सुबह होने का इंतजार कर रहा था। नींद नही आ रही थी। लेकिन नींद आना ऐसे समय काफी सहज था। सुबह की सोंच और नींद में प्रत्यक्ष सम्बन्ध था।
#प्रेम के शब्द (आगे जारी है...)
-प्रभात




प्रेम के शब्द

प्रेम पर न ही बोला जाए कुछ, ऐसा लगता है क्योंकि इसकी तह में जाने पर पता चलता है ये प्रेम का बस आँचल ओढ़े है और अब इस समाज में प्रेम जैसी चीज दरअसल है ही नहीं। बहुत दर्द है प्रेम में। प्रेम में बहुत जलन भी है, चिंता है। करुणा है। चीत्कार है। अगर ये सब है तो इसका मतलब इसमें पड़कर प्रेम के सकारात्मक पक्ष जो शायद आजकल कहने मात्र के लिए मिलते है जैसे खूबसूरती, मुस्कुराहटें, खुशियां, हँसी जैसी चीजों का सुसाइड ही करना है।
लेकिन आप नकारात्मक ही क्यों हो। यही तो देखने को आये है। तो देखिए....सब कुछ सकारात्मक रूपी नदी के किनारे से। जहां काँटों के बीच में गुलाब जैसा फूल प्यार लेकर बैठा हो। जहां कराहते पक्षियों के बीच पपीहे की आवाज हो। जहां मटमैले पानी के वेग के साथ कुछ चमकते बुलबुले प्रकाश से हाथ मिला रहे हो। जहां उलझनों की राह हो मगर बिना किसी सहारे के हर राह पर चलकर केवल एक राह की ओर गुजर जाए जिधर केवल आप और आपकी दुनिया हो। लोग खुद- बखुद आपको ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे।

@प्रभात

आहत मन

आहत मन की करूण वेदना प्रखर हुई है जब जब
जागा मैं, आंखे खुली पर छा गयी उदासी तब तब
खो दिया किसी अपने को, जैसे ही कुछ करना चाहा
वीरता का प्रमाण लिए, असमंजता से लड़ना चाहा
नदियां उफनी, बादल गरजा, छाया तिमिर तिहुँ ओर
भावनाओं के वशीभूत है ये, जिंदगी की राह हर ओर
वक्त ने सिखाया है इतना, विपत्ति है आती जब-जब
हौंसलों से पार होती है, अश्रु में डूबी नैया तब-तब

-प्रभात
(तस्वीर: गूगल साभार)