Saturday 1 April 2017

मित्रता

मित्रता
1. हे मित्र! कर्ण और दुर्योधन की मित्रता की बात करूँ या राम और लक्ष्मण की मित्रता की। सिनेमा में जय और वीरू की बात सुनोगे या देवदास और पारो की। आज तुम्हें सच सुनाते हैं क्योंकि तुम मित्रता की ही बात किया करते हो।
गूगल साभार 

इस संसार में जब माँ के पेट से बाहर आया तो अकेला महसूस नहीं हुआ क्योंकि अज्ञानता का भाव था, लेकिन उस समय मैं और तुम बहुत अकेले थे। इतना अकेले की वो माँ की कोख ही शायद एक सहारा था बाकि कुछ भी अपना नहीं था। भले ही लोग हमारे इन्तजार में खुशियां बाँट रहे हों या दुःख साँझा कर रहे हों। जब अकेले शब्द की पहचान होने लगी तब वह दिन था जब घर से स्कूल के लिए अकेले भेजे जाने लगे। जब छात्रावास की दीवारों के अन्दर कर दिए गये। जब गाँव से अकेले ही रेल में छोड़ दिए गए। जब भी अपने दादा-दादी, माँ-बाप, भाई-बहन से दूर हुए थे।

मुझे याद है जब मैं अपने गाँव से दिल्ली आया था तो मेरी उम्र 17 साल थी। दाखिला हंसराज में हुआ था। युवा पुरुष नहीं था बल्कि बहुत अपरिपक्व बालक था। ऐसा लगा था मानों पहली बार मैंने अपना पाँव मखमली चादर से काँटों पर रखा था। लक्ष्मी नगर से मेरे कॉलेज तक जाने के बस पकड़ने के रास्ते तो मेरे चचेरे भाई ने एक बार दिखा दिया था। राजपथ से होते हुए हंसराज कॉलेज आने तक कुल 2 बार बस बदलनी पड़ती थी। लेकिन मेरी अज्ञानता, सीधेपन और नादानियों ने मुझे अनगिनत बस बदलने पर मजबूर कर दिया था। अन्तोगत्वा मैं अपने अकेलेपन और इससे उत्पन्न कमजोरी और भय की स्थिति में सोचता हुआ कॉलेज तो पहुँच जाता था, लेकिन मेरा मन किसी अपने को सामने देखने के लिए हमेशा बेचैन रहा करता था। क्योंकि इस अकेलेपन की स्थिति में मेरे लिए जो अलग हुए थे वे सबसे करीबी दादा जी थे। फिर माता जी थीं, और इन दोनों से ही कुछ शब्दों में साँझा कर पाने की बात करना मेरे लिए नामुमिकन था। मेरे कभी कोई मित्र नहीं बने थे जो मेरे जैसे हो, जिससे कुछ कह पाता। यह अब तक हमउम्र में कोई करीबी न होने का एक गलत परिणाम ही था कि मैं जहाँ भी जाता था वहां मित्र किसी को बनने योग्य समझा ही नहीं। इसलिए ही शायद इस अकेलेपन के शिकार में केवल परिवार के अलग होने मात्र से ही मैं बस से लक्ष्मी नगर पहुँचने से पहले ही 5 किलोमीटर की दूरी पर उतर जाता था और अपने शब्दों के मुंह से निकल जाने की छटपटाहट में अपने आप से जोर जोर से अकेले में गगन तले जहाँ दूर तलक कोई न दिखाई देता था जोर-जोर से बोलकर अपने आप को सांत्वना दिया करता था। आखों से आंसू आने की तीव्रता को रोकता नहीं था और अपने आप को देखते हुए, अकेले बुडबुड़ाते हुए पुराने पुल से यमुना नदी को देखते हुए बड़े आराम से पार करते हुए निकल जाता था।

“मित्रता” शब्द का परिचय यहीं से होने लगा था। मित्र की जरूरत महसूस होने लगी थी। बहुत लोग मिलते थे, जो आस पास गुजरते थे। मिलते थे, लेकिन सब अनजान थे, किसी से बात करने का साहस नहीं था क्योंकि मित्रता के लिए सारे परिभाषा मेरे लिए किसी और के साथ फिट नहीं बैठते थे। रीज्नालिज्म की बात ही क्यों न हो, राज्य वाद ही क्यों न हो, कास्टज्म ही क्यों न हो और तो और कोई रिलेशन में ही अपने क्यों न हों। मेरे मित्रता के लिए कोई भी सही न था। शायद मेरी एक सच्चे मित्र के तलाश की सोच मेरे अकेलेपन को दूर न कर सकी। मुझे आज तक यही लगा कि मित्र सच्चे और अच्छे बनने के लिए बहुत आये, कुछ को मैंने खुद बनाने की जुगत की, कुछ ने खुद ही पहल किया, कुछ को एक दूसरे की जरूरतों ने बांधे रखा, लेकिन इन सबके बावजूद मेरे सच्चे मित्र की परिभाषा में मेरी मित्रता इतिहास में लिए जाने वाले नामों के बराबर की कभी न हो सकी। शायद जब भी मैं आगे-पीछे देखता हूँ तो क्षणिक मित्रता के रूप में तमाम उदाहरण सामने बन कर आये मगर एक समय के बाद बिन मित्र एकाकीपन का अहसास होता ही रहा। शायद इसलिए क्योंकि “मित्रता” शब्द की सही परिभाषा में मेरा आचार, विचार, व्यवहार, व्यक्तित्व, और समझदारी का किसी भी मित्र के साथ मेल नहीं हो सका। शायद इसलिए भी क्योंकि आज के समय में एक आदर्श मित्र के बारे में सोचना किसी अवस्वयंभावी कल्पना की तरह से कम नहीं है। मुझे पता है आप फक्र के साथ कहते होंगे कि मेरे मित्र है, मेरा बेस्ट फ्रेंड है, मेरा बॉय फ्रेंड है, मेरी गर्ल फ्रेंड है आदि-आदि जैसे बहुत सारे संबधों की उपमा शायद इन्ही के भरोसे दे दी जाती है। मगर वास्तविकता इनसे परे है।

मुझे पता है आज के समय में आचार्य राम चन्द्र शुक्ल के “मित्रता” नामक निबंध को कोई पढ़ कर यह स्वीकार नहीं करेगा कि मित्र यही है जो शुक्ल जी ने लिखा है, लेकिन शुक्ला जी के मित्रता नामक निबंध के अनुसार मित्रता की बात करने पर आप खुद ब खुद अकेले हो जायेंगे, नब्बे प्रतिशत लोग मित्रता के निबंध को अपने जीवन में नहीं उतार पायेंगे, लेकिन मुझे यह बात कहने में संकोच नहीं कि मेरे पास/ करीबी का मित्र कोई नहीं है। भले ही यह कथन मेरे तथाकथित मित्र मुझसे सुनकर और यहाँ पढ़कर अच्छा महसूस नहीं करेंगे और बहुत सारे प्रश्न करने लगेंगे, लेकिन मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप मित्रता के सही पर्याय को नहीं समझते और इसलिए आप और हम दोनों ही एक न एक दिन चाहे वह किसी के जीवन में खुशी का दिन हो, चाहे वह दुःख का समय हो सम्मलित नहीं होते और अपने आप को अकेला समझते हैं। इस प्रकार का अकेलापन आप जीवन के हर मोड़ में चाहे वह समय ही क्यों न हो। जब आत्मा शरीर को छोड़ कर चली जाती है, ऐसी स्थिति में आप अकेले ही होते है। यही जीवन का सत्य है। अकेला चलने वाला इंसान अपने अच्छे बुरे दिनों को लांघता हुआ अभ्यास द्वारा बच तो निकलता है, लेकिन कहीं न कहीं किसी मोड़ पर सहारा न लेने वाला मनुष्य भी सहारा पाने की जुगत में पड़ा रहता ही है और ऐसी ही स्थिति में “मित्र” की कीमत  का अहसास होने लगता है।

2. हे मित्र! आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने भी इस बात का पुरजोर समर्थन किया था कि ऐसे लोगों का कभी साथ न देना चहिये जो युवा अमीरों की बुराईयों और मूर्खताओं की नक़ल किया करते हैं, गलियों में ठठ्ठा मारते हैं और सिगरेट का धुआं उड़ाते चलते हैं, जो दुःख का बहाना बनाकर ड्रग्स और मदिरा का सेवन करने के आदी हो जाते हैं, जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय विषयों में ही लिप्त है, जिनका ह्रदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से  कुलषित है....यह नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करती बल्कि बुद्धि का भी क्षय भी करता है। ऐसे लोगों को कभी मित्र न बनाओं जो अश्लील, फूहड़ और अपवित्र बातों से तुम्हे हँसाना चाहें।  हंसमुख चेहरा, थोड़ी बातचीत का ढंग, साहस और चतुराई देखकर लोग तनिक समय में ही मित्र बना लेते है या साथ बैठे मदिरा सेवन, सिगरेट फूकने वाले लोग अक्सर ही मित्रता कर लिया करते हैं......,लेकिन इसे मित्रता नहीं बल्कि शत्रुता समझी जानी चाहिए।  मित्रता के लिए विश्वासपात्र शब्द का बहुत महत्त्व है, जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि उसे खजाना मिल गया। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों में हमें दृढ करेंगे, दोष और त्रुटियों से हमें बचायेंगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करें, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब हमें वह सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे तो हमें उत्साहित करेंगे. सारांश यह है कि हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे।

मित्रता के लिए यह कतई जरुरी नहीं कि दोनों मित्र आपस में एक ही प्रकृति के हों, एक ही प्रकार का व्यवहार रखते हों, एक ही सोंच रखते हों बल्कि मित्रता दो विपरीत दिशाओं के लोगों के बीच ही सफल हो पाती है जैसे राम और लक्ष्मण की, दुर्योधन और कर्ण की। अगर आप मित्रता किसी ऐसे युवा से करना चाहते हों जो असभ्य हो, मदिरापान का सेवन करता हो, जो सिगरेट दिन में कई बार फूँक डालता हो, जो हमेशा परेशान रहता हो...तो उससे मित्रता यह सोच कर कतई न कीजिये कि आप उसे सुधार देंगे...बल्कि ऐसा भी हो सकता है आप उसका साथ पाकर बिगड़ जाएं...जैसा कि अक्सर होता है कि ज्यादातर लोग मांसाहार और मदिरा सेवन अपने युवा दिनों में अपने ऐसे ही साथी के संसर्ग में आने से शुरू कर देते है, क्योंकि दोस्त नामक शब्द का अर्थ शायद यहीं तक सीमित होता है और ऐसा न करने पर दोस्ती तोड़ने का भय पैदा करने की कोशिश करते हैं...दरअसल ऐसे युवा कभी दोस्त बन ही नहीं सकते...या ऐसी मित्रता कभी मेरी परिभाषा में शामिल हो ही नहीं सकती। दोस्ती में कभी भी कोई ऊंच-नीच होने की भावना नहीं होती...जो जैसा होता है वैसे ही विचार लेकर आगे बढ़े तो ही बेहतर होता है। दोस्त बस एक दूसरे को सही रास्ते में चलने के लिए विवश करते हैं। इसलिए ही मित्रता को उचित पैमाने और नियम के अंतर्गत बांधते हुए ही आगे बढ़ाने चाहिए ताकि आप एक दूसरे के आनंद में शरीक हो सकें और मित्रता का श्रेय ले सकें लोगों के सामने मित्रता का पर्याय बन सके। एक दूसरे की अच्छाइयों को ग्रहण करते हुए सुमार्ग के रास्ते पर चल सकें ताकि आने वाला भविष्य भी बेहतर बन सके। मित्रता आभासी दुनिया से शुरू करके आभासी दुनिया पर ख़त्म हो जाती है, लेकिन जब आभासी दुनिया से शुरू होकर जब आपके वास्तविक जीवन में उतर आती है तो वह मित्रता होती है वह इसलिए ही सफल होती है क्योंकि आभासी दुनियां में भी मनुष्य के आचरण का पता लग ही जाता है।

मित्र धर्म का पालन करना आजकल हर किसी के बस की बात नहीं इसलिए मित्रता भी क्षणिक ही रह जाती है। वह एक समय के बात किसी दूसरे व्यक्ति के साथ दूसरे रूप में जुड़ जाती है। मित्रता के अर्थ बदल गए हैं, जिसे शायद सही रूप में समझने के लिए मित्र के दोनों पक्षकारों की जरूरत होती है।

-प्रभात 

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