Friday 17 February 2017

फेसबुक से

राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक मुद्दों को लें; सामुदायिक, पारिवारिक, व्यक्तिगत मामले हो.......सब मुद्दे बंद कमरे में, आपसी बातचीत, ऐतिहासिक प्यार और सहमति से निपटाये जाते है। लेकिन आजकल सुलझाना कोई चाहता ही नहीं इसलिए सभी मामले पारदर्शिता के साथ, पब्लिक प्लेसेज पर, भाषणबाजी से, हो हल्ला से, व्हाट्सएप पर एडिटिंग फोटो भेजकर और चैट वादी परंपरा से, लोकतांत्रिक प्रक्रिया से पूरे समाज को सम्मलित करके दूर किये जाते है....इसलिए क्योंकि उलझाया जाना एक ऐसी स्वाभाविक प्रक्रिया है, जिसमें इंसान उलझ उलझ कर अपने निर्णय प्रक्रिया का आत्महत्या कर लेता है...और वह ऊपर से अपने आपको बेहद खुश और चतुर इंसान समझने लगता है।
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कुछ सवाल नहीं पूछना चाहता।
आजकल सवालें हत्या करवाती है
शरीर की,
आत्मा की,
संबंधों की,
खुशी के कारणों की....

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खोलकर चली गयी बंद आंसू के दरवाजे, छलकने पर "उसकी" कोई रुकावट नहीं।
बंद करके आँखे अब वो निकल गयी दूर कहीं, उसको मुझसे ही कोई शिकायत नही।
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तड़प रहा हूँ तुमसे प्यारे, प्यार किया तो भी हारे
गुलशन हो या आँगन दिल की, दिल ही है दीवारें...

-प्रभात 

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