Friday 30 December 2016

क्यों लिखते हो

क्यों लिखते हो ?
गूगल आभार 

किसी नदी, तालाब और कुएं को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
अपरिचित या किसी जुदा साथी को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
सागर, आकाश या फिर रहस्य को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
किसी गड्ढे को, किसी हार को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
किसी अनकही बातें, यादें और संघर्ष को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
मृत्यु, संस्कार और व्यथा को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
किसी और के दुःख, प्रताड़ना को
लिखना है तो मुझे लिखो

सच बताऊँ !!!
लिखा ही उसे जाना चाहिए

जो रहस्य हो, अज्ञात हो
जिसे जानने की इच्छा हो
जिससे आत्मविश्वास मिलता हो
जिससे मन को खुशी मिलती हो

जो अकेला हो, 
जो कुछ कह न पाया हो
जो मेरी यादों में समाया हो
जिससे मेरी प्यास बुझ जाती हो

जिसमें मैं खो जाता हूँ 
चौराहों पर, सूनसान सड़क पर
और यहाँ तक कि
तुम्हारे सामने भी
इसलिए लिखता हूँ !!!
-प्रभात



तुम्ही क्यों

तुम्ही क्यों
गूगल साभार 

एक एक करके सब
दोषी मुझे ठहराते गए
पहचानना तो
कौन चाहता है
मुझे....
वक्त का तकाजा है
एक दिन आएगा वह भी
जब आओगे और कहोगे
कि गलती हुयी।
रो देना शायद कम हो जाये
तुम्हारी मुसीबत ।
हम तो उदास होते है
रो भी लेते है अकेले
और राह देखते है
कि पहचानने का वक्त
कब आएगा...शायद
तब भी मुझे ही 
सबसे ज्यादा पछताना पड़े
प्यार की छटपटाहट में, 
चाहकर लौटा न पाने के लिए
बीता हुआ वक्त ....।।

-प्रभात 

बुजुर्ग और बारात

जब घर में शादी थी और बैंड बाजे के साथ दूल्हा चल रहा था, तो उसके दादा जी कमरे में बंद होकर पानी पीने को तरस रहे थे। घर के किवाड़ बंद थे बस एक कमरा खुला था, जिसमे दादाजी का एक फटा तौलिया बिछा हुआ था। न टाटपट्टी थी न ही कोई खाट। बस बिखरा बिखरा सा था पूरा सामान। उदासी थी। तड़प थी की चुपके से शादी का खाना तो मिल जायेगा। पर अफ़सोस कि खाने के बाद सौंच जाने वाला दरवाजा भी बंद था। किसी बच्चे ने नहीं सोंचा था कि दादाजी को ज़रूरत होगी सौंच जाने की। लेकिन बहु ने शायद सोंच लिया था सौंच खाना गन्दा हो जायेगा और फिर ये भी बात सही थी भूखा रहने के बाद कहाँ जरूरत पड़ेगी ही। सच सोंचा था शायद ।
गूगल साभार 
सीढ़ियों पर खड़ा एक 6 साल का बच्चा और उसका 20 साल का दोस्त बारात जाने के लिए उतावले थे। बस अंतिम गाड़ी बची थी, जिसे कुछ किरायेदारों को लेकर जाने के लिए थी। जो मकान मालिके के ऊपर तल्ले पर रहा करते थे। 6 साल का बच्चा और उसका दोस्त भी उन्हीं किरायेदारों में से एक थे। अचानक दादा जी ऊपर आते है सीढ़ियों पर ....20 साल का दोस्त लड़का अपने छोटे 6 साल के दोस्त की ओर इशारा करते हुए दादा जी से कह रहा था कि ये भी बारात जा रहा है। ठण्ड में फटी बनियान पहने दादा जी जोर की गालियां देते हुए उस बच्चे को 3 लप्पड़ जड़ देते है। बच्चा भी समझ नहीं पाता रोने लगता है। उसका दोस्त शायद दादा जी की छुब्धता को समझने का प्रयास कर रहा था।
जब 20 साल का वह लड़का छोटे दोस्त के साथ सीढ़ियों से उतरने लगता है तो उससे हाथ जोड़कर दादाजी कह रहे थे नीचे बोल देना भईया कुछ खाना दे दे। कांपते हाथ ठण्ड में शायद बुजुर्गी बयां करते हुए उसके वास्तविक जीवन और उनके पारिवारिक रिश्तों को ख़ूबसूरती से बयां कर रहे थे। सोंचते हुए कि अब क्या करें और किससे बोले कि दादा जी को खाने का कुछ दे दे...बोलता है ..ठीक है दादाजी अभी मिल जाएगा। 20 साल का लड़का अपने दोस्त को तेजी से दादाजी से बचाकर उसे लेकर बारात के लिए जाने वाली गाड़ी में बैठ लेता है...और शादी के स्थल पर अब सभी पहुँच कर डीजे पर डांस करने लगते है।।।
प्रभात


Monday 12 December 2016

दादी जी

लगता है, अभी दादी हैं। घर जाता हूँ तो लगता है हँसते हुए बोल देंगी 'बाबू'..आई गया..पनिया ले आयी...सच कहूं तो ऐसा कभी नहीं रहा होगा जो मुझसे बताती न रही हो दुःख सुख या किसी की कोई बात बेफिक्र। मैं समझाता तो अगर उन्हें समझ नहीं आता तो बिना कुछ बोले हंस देती। बहुत बार जब मेरे चेहरे को कोई घर का सदस्य न पढ़ पाता तो अक्सर वो बोल देती 'काव बात बाय'..पढ़त पढ़त मुरझाई गया..'आज काहे चिंता में हया' फिर मेरी और दादी का संवाद शायद बहुत ही अच्छा संवाद हुआ करता था।
दादी जी पढ़ने को शायद पहली क्लास भी नहीं पढ़ी थी। लेकिन ज्ञान का असीम भण्डार शायद मुझे अलग तरीके से प्राप्त हुआ। दादा जी और दादी जी में फर्क बहुत बड़ा था लेकिन कभी लगता नहीं था कि कोई फर्क है क्योंकि दादा जी और दादी जी दोनों से मिलकर ही मेरा बचपन मुझसे बचपन के तरीके से जिया गया। दादा जी थे तो कृषि अध्यापक और साथ ही उर्दू और अंग्रेजी के विद्वान। पशुओं से प्रेम करने वाले। इसलिए घर में किसी चीज की कभी कमी न रही। दादा जी और दादी जी के बिना मेरी जिंदगी का हाल क्या ही होता।
एक सुबह नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अपने बीमार भाई को एक ट्रेन में बिठाने के लिए गया वह तारिख था दिसंबर का पहले हफ्ते का ही...जब पिछले साल दिसंबर में मुझे जानकारी मिली कि दादी जी बीमार है... फोन पर बताया गया कि दादी जी बीमार है लेकिन वह ठीक हो रही है ऐसा संकेत मिला...मैंने मन ही मन दुःख हुआ। अलग जाकर दूर आँखों में आंसू भी आये और पता नहीं क्यों मन ही मन भगवान् से विनती भी किया की दादी जी पूर्ण रूप से ठीक हो जाये। बस दादी जी को कुछ नहीं होना चाहिए। मेरी जिंदगी ले लीजिए भले ही लेकिन मेरी दादी जी को ठीक रखिये।शायद ऐसे ही भगवान को बहलाने का प्रयास करता रहता आया हूँ। लेकिन भगवान् न तो ठीक किये...उलटे ही दिनाक 10 को पता चला कि दादी जी नहीं रही...क्या???विश्वास तो नहीं हुआ लगा कि किसी को ऐसे कैसे पता लगा कि दादी नहीं रही।
पिताजी भी नहीं जान पाए होंगे। होंगे डॉक्टर बहुत बड़े अपने आप को समझने वाले। लेकिन दादी जी के साथ ऐसा हो ही नहीं सकता...शायद सुना था कि अक्सर कभी कभी साँसे लौट आया करती है। मैं भी चमत्कार और श्रद्धा से परिपूर्ण उसी की प्रतीक्षा में था कि मुझे मेरी दादी से मुलाकात हो जाये। मैं शताब्दी में बिना टिकट चलकर किसी तरीके से लखनऊ पहुंचा और फिर लखनऊ से घर बिना दिन पर कुछ खाये पीए....उस दिन की कहानी ध्यान आती है तो लगता है यात्रा वृत्तांत ही लिखना ठीक होगा। परंतु अगर बात करे घर पहुँचने को लेकर सभी लोग पिताजी, अम्मी, दीदी, भाई सब के सब बिना रोये अपना सभी काम सामान्य रूप से कर रहे थे। जब मैं पहुँचा शाम को तो दादी जी को लेटे हुए रजाई में देखा...अब तो मैं भी असामान्य से सामान्य हो चुका था।
पता नहीं क्यों लगा ही नहीं दादी जी नहीं रही। शायद वो थी तो भी हंसाती थी और नहीं है तो भी हंसाती है। रुलाया भी तो उनकी यादों ने कभी कभार...पर अहसास नहीं होने दिया कि अब वो हमारे बीच नहीं है इसलिए आज के दिन के दादी जी के स्वर्गवास का दिन भी याद नहीं रहा । लौटते हुए दीदी का फेसबुक पोस्ट पढ़कर लगा कि हाँ शायद सही कह रही होंगी। दोस्त से कहाँ कि दादी जी के बारे में लिखा गया है....मुझे तो याद ही नहीं रहा कि आज के ही दिनाँक 10 दिसंबर, 2015 को वो अलविदा कह गयी। शायद ऐसा इसलिए ही हुआ क्योंकि दादी जी हर पल साथ दिखती है....

प्यारी दादी जी अब आपको याद कर रहा हूँ....मेरे भविष्य अर्थात नौकरी, शादी की बड़ी चिंता थी आपको वह चिंता अब भी होगी तो निकाल दीजियेगा...देखिएगा आप मुझे मेरे भविष्य को चाहे दूर आसमान से ही क्यों न.



महके न धरती तब बरसात कराओ न

महके न धरती तब बरसात कराओ न
सौंधी सौंधी मिट्टी से मन को खूब रिझाओ न
मन की अभिलाषा है बस हरा भरा संसार रहे
गूगल से साभार 
चिड़ियां चहके, चमके तारे झिलमिल ये संसार रहे
सूनी हो बगिया तो कोयल कोई आओ न
सोते हुए गहन निद्रा से सुबह सुबह जगाओ न....

सूना सूना संसार हुआ है, अंधा तो प्यार हुआ है
मतलबी इंसान हुआ है, रिश्तों में व्यापार हुआ है
लोरी न माँ की तो तुम, अब आकर गले लगाओ न
तपते देह का आंसू लेकर पोखरा नया बनाओ न
महके न धरती तब बरसात कराओ न.....
 -प्रभात

Thursday 1 December 2016

प्यार

बिना शब्दों के प्यार हो जाता है !!!

अच्छी बात नहीं लगी न
पर क्या ऐसा नहीं होता?
गूंगा प्यार नहीं करता?
गूगल साभार 

बिना सुने कोई बहरा कैसे सुन लेता है
अपनी प्रेमिका की बातें...
कैसे प्यार करता है
अपनी पत्नी से अपने बच्चों से भी
बिना संवाद के तो
प्यार के वशी भूत मोर
अपनी संगिनी का दिल
मोह लिया करते है
लेकिन प्यार के लिए,
होती तो है न एक भाषा
वह जरूरी नहीं कि बातों से हो
तभी तो हो जाता है
अंतरक्षेत्रीय, अंतरराज्जीय, अंतर्देशीय प्यार
और प्यार वहां भी हो जाता है
जहाँ कोई चेहरा नहीं होता
केवल विश्वास होता है
 केवल काल्पनिक दुनिया का प्यार
 इसलिए ही शायद जरूरी नहीं,
प्यार में तीन शब्द आयी, लव, यू
तीन अक्षर से बना शब्द प्यार
 और जरूरी नही कुछ कहना
 हाँ करना जरूरी है इजहार ...
उसके लिए भाव ही काफी है..

 -प्रभात