Saturday 22 October 2016

सूरज ढलते-ढलते वो भी चली गयी

      कितने बरस हो गए जब भी सोंचा कि तुम मिलोगी, मिलती ही रही हो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में। आज भी वही सोंचा कि तुमसे मुलाक़ात जरूर होगी। राह वही थी तुम तक जाने वाली। चलते -चलते रुक रुक जाता था। कितनी बार किसी लड़की को देखा तो लगा तुम ही हो। रागिनी अगर आज तुम्हारे बारे में सोंचा न होता तो शायद तुम न मिलती लेकिन ये मेरा प्यार ही है जो तुम्हे मिला ही देता है। यूँ तो सूरज ढलने के बाद शायद मुझे तुम्हारी तरह ही किसी चेहरे का दिखाई देना असंभव हो जाता है। परंतु तुम्हारा चेहरा मेरे सामने से कैसे हट सकता है। मेरी डायरी को भी तुम्हारे मुलाकातों के लिए बहुत लंबे वक्त से इन्तजार था। सामने से जब तुम आयी तो बहुत जल्दी ही पिछली बार की तरह अंदेखेपन से आगे बढ़ती रही, लेकिन मैं ...तुम्हे देखकर और इतने पास आकर अपने आप को संभाल न सका और वही ठहर सा गया, क़ि शायद आज कुछ बोल ही दोगी।
      रागिनी तुम्हारे एक-एक मुलाकातों की कहानियां मुझसे कही नहीं जाती। हाँ लिख रहा हूँ। नहीं चाहता कि तुम कभी आकर पढ़ना। तुम तो वैसे भी तुम हो। "हम" तो हम ही कह सकते है क्योंकि हम को लेकर चलना मेरे लिए आसान है मैं अभी मैं हूँ और लड़का भी। इसलिए और तुम न आजकल बड़ी-बड़ी बातें भी करने लगी हो। मैं जब सोंच रहा था कि तुमसे मुलाकात अगर हुयी तो मैं हाथ नहीं मिलाऊँगा। इसलिए नहीं कि मुझे किसी चीज़ का अहंकार था। इसलिए क्योंकि मेरी रागिनी...रागिनी है बस। मेरी हटाने के लिए बहुत पहले सन्देश चलकर आ गया था। अरे रागिनी फिर जब तुमने हाथ बढ़ाया तो मेरी दृष्टि तुम्हारे लिए वही वास्तविक सी लगी और उसी गिरफ्त में आकर मैंने भी अपना हाथ तुम्हारी तरफ बढ़ा ही दिया। सच बताऊं मत पूछना अब कि तुम घड़ियाली आंसू भी बहाती होगी कभी।मुझे पता है सब झूठ है। लेकिन मत सोंचना कि कभी मैं ऐसे सोंचता भी हूँ। तुमने जो पुछा आज शायद मैं पूरे आत्मविश्वास से सटीक जवाब देने की कोशिश किया था। पर उम्मीदें तुम पर जो थी वो कभी पूरी नहीं कर सकी, कहाँ सोंच सकता हूँ कि कभी खुद पहल करोगी। कभी खुद मिलोगी। कभी खुद रुक कर वही नाम लेकर पुकारोगी। कभी खुद से कुछ समय बैठने के लिए कहोगी।
      नहीं कहोगी, नहीं रुकोगी, नहीं सुनोगी, केवल यही चाहोगी क़ि कभी फिर मिलते है। पर मिलोगी कहाँ...चिंता मत करो मुझे केवल मिलना है मैं ढूंढ लेता हूँ तुम्हे। तुम भी गलती से कभी ढूंढते हुए मिल जाना इन्तजार रहेगा। मत पूछना क़ि तुम क्या पहनी थी। आज कैसी लग रही थी। तुम प्यार करते हो?? नहीं । तुमसे नहीं.. रागिनी! रागिनी के शरीर से नहीं बस उसकी आत्मा से। तुम चाहे कितनी भी बदसूरत लगो। तुम्हारी ख़ूबसूरती से मेरे दिल का आँगन खूबसूरत होकर रोम रोम को महका देता है। मेरे हृदय की दीवारों से तुम्हारी आवाज कानों से कभी बाहर ही नहीं जा पाती। और फिर भी तुम रागिनी क्या मेरे लिए कभी बदलोगी नहीं। वैसे ही रहोगी। जैसे मैं चाहता हूँ तुम नहीं। चलो अच्छा हुआ...अगली प्रत्यक्ष मुलाकात में अब शायद जिंदगी बहुत बदली हुई मिलेगी...हाँ अब हमारी मतलब मेरी और तुम्हारी भी।
-प्रभात


Wednesday 19 October 2016

अब प्यार नहीं करना

गूगल से साभार 
जीते जी क्यों मरना
अब प्यार नहीं करना  

बहकर भावों की धारा में,
कवि बैरागी नहीं बनना
चाहत को क्यों लिखना,
देवदास ही क्यों बनना
अब प्यार नहीं करना  

इक मूर्त बना बस पूजना,
क्यों उसे हासिल करना
दीपक की लौ के आगे,
पतंगा बन क्यों जलना
अब प्यार नहीं करना  

अजीब सी ख्वाहिश ले,
सोते -सोते क्यों जागना
और सपनों में पीछा करते,
गले फिर से क्यों मिलना
अब प्यार नहीं करना  

शब्दों को संजीदा से लेकर,
सोंचेंगे क्यों दिल से अब
बातों-बातों में लड़ना और
हँसते-हँसते क्यों रोना,
अब प्यार नहीं करना  

इश्क का प्रस्ताव ले क्यों,
लव यू मन में बोलना
हृदय की गति बदलकर,
क्यों इजहार दिल की करना
अब प्यार नहीं करना  
-प्रभात

Sunday 16 October 2016

थाम कर मेरा हाथ

थाम कर मेरा हाथ 
चलती रहोगी न
छोड़ जाओगी मुझे 
कभी क्या अकेला
नहीं। यही कहोगी
जानता हूँ 
कहती रहोगी न
मैं भटक जाऊं
चलते चलते कहीं
मुझे ढूंढ लोगी न
वर्षों न हो मुलाकात
तो मेरे आने का 
इंतज़ार करोगी न
मैं लिखता हूँ सब
प्यार की कलम से
तुम पढ़ती रहोगी न
भावों की बारिश में 
भीगकर हर वक्त
मुस्कुराती रहोगी न
थाम कर मेरा हाथ
चलती रहोगी न
-प्रभात
तस्वीर: गूगल से साभार

सैलून की ओर

    ऐसा लगता है आज मेरा प्यारा बचपन लौट आया है. मेरी माँ कटोरी में सरसों का लेपन/बुकवा लेकर लगाने के लिए आज फिर मेरे पास ही बैठी है. आँगन में उसी जगह चटायी बिछी है जहाँ पर आस-पास की क्यारियों में लगाए खूबसूरत फूलों से खुशबूं आ रही है और उनके पास मधुमक्खियाँ, तितलियाँ; मेरी माँ के दुलार के साथ आस पास खेल रही हैं. आखिर ये एहसास हो भी क्यों न! आज जो रविवार है यानि की हफ्ते भर का एक दिन सन्डे का. अभी-अभी मां के आँचल में अपना चेहरा छुपा रहा हूँ और कह रहा हूँ माँ मेरे बाल देखिये छोटे है न? लबों पर हल्की मुस्कराहट बिखेरती बता रही है- हाँ बेटा!

   गमछा ओढ़कर सैलून में बैठे हुए लोगों को देखता हूँ तो बचपन की ओर चला जाता हूँ. बूढ़े नाई अक्सर हाथ कांपते हुए मेरे बाल अब भी काट देते है शायद बूढ़े नाई ये वही है जिन्होंने मेरे पिताजी के बचपन में भी बाल काटने का काम किया करते थे. घर पर और गाँव के चौपाल पर हजामत करते अक्सर यही बूढ़े लोगों को देखता हूँ. कांपते हुए हाथ में कैची और उससे हजामत के बीच की वार्ता का आनंद वे सभी लोग अब भी वैसे ही उठाते है जो अंग्रेजी हुकूमत के समय पहले भारतीय लोग उठाया करते रहे होंगे.  सैलून नाम ही तो बदला. बचपन और नाई भी बदले. मगर मैं तो अभी वही बूढ़े नाई के पास ही बैठा उनकी बातों में मशगूल हूँ .

   कुछ वर्षों पहले की बात है दिल्ली आया ही था. हंसराज कॉलेज से निकल कर एक दिन अकेला छात्रावास की खोज में घूमते हुए माल रोड तक जा पहुंचा. शायद याद नहीं परन्तु वह सपनों का जुबिली हॉल था. शायद अब वह जुबिली हॉल जैसा मेरी आँखों के सामने है वैसा यकीन नहीं होता क्योंकि दिल्ली में आने के बाद की चकाचौध आँखे कुछ और ही दूर दृष्टि से तब जुबिली हॉल देखी  रहीं होंगी. यह छात्रावास देखते ही लगा कि राष्ट्रपति भवन यही है. मैं सिर्फ यहाँ पहुंचकर अपने आप पर गर्व महसूस कर रहा था. लौटते समय सड़क के पास ग्वायर हॉल की एक दूकान दिखी: सैलून. सैलून और फिर आगे बढ़ा तो ग्वायर हॉल. नहीं पता था कि यह भी छात्रावास है लगा कि प्राईमरी  किताबों में पढ़ा किसी अंग्रेज वायसराय का निवास स्थान होगा! सोंचा, कहीं ऐसा तो नहीं... यही भारत में व्हाईट हाउस हो. लाल दीवारों को व्हाईट कहना ज्यादा हास्यास्पद नहीं है. क्योंकि मैं वास्तविकता के सागर में खड़ा होकर अपनी बात कहने की कोशिश कर रहा हूँ.

   सैलून भी किसी ऐरे-गैरे के लिए तो होगा ही नहीं; ऐसी बातें ही दिमाग में आती थी. बिल्डिंग देखकर बड़ी-बड़ी कल्पनाएं करना आम बात है. ग्वायर हॉल के गेट पर लम्बे-लम्बे दो गार्ड मानों कह रहे थे कि इजाजत नहीं है बच्चे. दूर से सपने देखना आदत तो हो ही गयी थी. सोंचा सैलून पर अगर नाई बाल काट रहा है तो मैं भी एक दिन जरुर बाल कटवाने के लिए पूछुंगा. सपने में भी नहीं सोंच सकता था कि कभी इस ग्वायर हॉल में मुझे रहने को मिलेगा. कल्पना जरूर कर लिया था कि काश एक बार अन्दर देखने को मिल जाता तो....  ग्रेजुएशन खत्म होते ही मेरी कल्पना सार्थक हो गयी और मैंने  वास्तविकता में आकर अपने पोस्ट ग्रेजुएशन के दौरान इसी ग्वायर हॉल में दो वर्ष बिताए.

   रविवार का आज का दिन शायद मुझसे कहने लगा कि आज सो लो. मैं ऐसे सोता था जैसे पूरे सप्ताह की कसर निकाल रहा होता था.  वही आदत अब भी है. आज मीठी यादों में सुबह के नाश्ते का आनंद भी उठा रहा हूँ. वो गर्म पूड़ियाँ, जिलेबी, गर्म दूध, आलू-चने की सब्जी कितना कुछ मुझे खिलाओगे. सहसा मैंने अपने बचपन की यादों से पूछ ही लिया कितना ? वो मित्र जो मुझे सुबह नाश्ते के समय जगाने आते थे आज कहाँ चले गए? आयेंगे और फिर चले जायेंगे? मेरे पास ही रह लेते. फिर से नाश्ता करने के बाद इसी छात्रावास (गवायर हॉल) में अपने कमरे की खिड़की से धूप को निहारते और थोड़ी देर बाद बाहर गुलाब वाटिका में बैठकर धूप सेंकते. किसी कर्मचारी से अब गिला शिकवा नहीं, अब तो मैं वहां मेस सचिव भी नहीं तो क्यों किसी से मेरा वाद-विवाद होगा. फिर क्यों आज मेस के लोग सुबह - सुबह मेरा दरवाजा नहीं खटखटा रहे। यही सब सोंचते-सोंचते मैं अपनी यादों को और आगे ले जाकर नाई की दुकान तक पहुँच जाता हूँ...वही सैलून जहाँ पर... सुना है जहाँ मेरा बचपन लौट आता है. सुना है न वही सैलून जहाँ हजामत बनवाने के लिए कभी सपने में केवल सोंचा था...सुना है वही सैलून जहाँ फोटो टंगी है कि यहाँ पर उपकुलपति और वायसराय जैसे बड़े-बड़ो की हजामत बनाई गयी है....

   सैलून वही है जहाँ अपने गाँव जैसे दो आदमी पान गुटका मुंह में दांतों के बीच दबाए, चबाते हुए मुस्कुराते हुए कैची चलाते हुए नहीं थका करते है...थोड़ा थकते है तो बतियाते है बिलकुल मेरे बस्ती में जैसे लोग बतियाते है. वही स्टाईल. दीवारें पर प्रमाणपत्र और बूढ़े नाई की तस्वीर, आज के सैलून में टंगी अर्द्धनग्न तस्वीरों की जगह लिए हुए बहुत अच्छे दिखते है...वही सैलून है, जहाँ पांच से छः लोग और समाचार पत्र पढ़ते हुए देखे जाते है और गाँव से विश्व तक की सारी चर्चाएँ हो जाती है...मनोरंजन के लिए वही बी. बी. सी. वाला रेडियों, वही मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार के गाने, लता जी की आवाज ने दूर तक आज के बदलते सैलून की ओर इशारा कर ही दिया लेकिन सबसे बड़ी बात इसने मेरे बचपन का सैलून और मेरे और मां के बीच होती वह आनंदमयी बाल-चर्चा का वृत्तांत मेरे सामने ही प्रकट कर दिया जैसे सैलून में लगे आईनें घूम-घूम कर मुझे मेरा बचपन लौटा दे रहे हो. रविवार का दिन ऐसा ही खास होता है आपका भी होता ही होगा. चलिए एक नजर डालते है इसी सैलून पर...
Gwyer Hall, University of Delhi
-प्रभात