Thursday 29 September 2016

यादें गाँव की

फोटोग्राफर: प्रभात 
 "यादें गाँव की"
अपने गाँव की याद करते हुए
मैं खलिहान की ओर चला गया
लगता है वही खलिहान जो घर के पास था
दादा जी ने बनाया था 
जिसमें गेहूं लाकर रखा गया था
वही डांठ के साथ जो आया था 
एक कोस दूर से 
पतले मेड़ों के ऊपर से चलकर
गाँव की बूढ़ी औरतों के सहारे 
मजदूरी में वो गेहूं के डाँठ ही लिया करते थे
दो दिन पहले से खलिहान के पास खड़ा होता था,
फसल दवांई के लिए चौधरी साहब का थ्रेशर
पुरानी मशीन जिसे दो दिन में गाड़ा जाता था
और पट्टा चढ़ाया जाता था 
बड़ी कढ़ाई में पानी भी भरे जाते थे
खेलते हुए मैं भी पहुँचता था उसके पास
और ध्यान से देखता रहता था
सीन पसीन गर्मी में लोगों को 
देखता हुआ फूस के मकान में पहुंचा
दादा जी सुस्ता रहे थे
शायद पसीना सुखा रहे थे
अब वो जाने वाले थे गायों के 
पूरे गोल के साथ, बिना सोटे के 
कारियवा, ललकी उजरका, गोलुआ 
मरकहिया, सिधकी जैसे दर्जन गाय
प्यार से आगे- पीछे चलते थे,
दूर तलक चरते थे 
मैं भी कभी कभार जिद कर 
दूर सिवान में चला जाता था
निहारने खेतों को, फलों को देखने
गायों के साथ कूदने
बागों के बागवानी के बाद की 
हरियाली देखने गाय के झुण्ड के साथ
दादा जी के पास पेड़ के नीचे बैठ
अनर्गल बाते करता और हर बार
हँसते, डांटते गायों के साथ 
आ जाता था घर
अब लूँ के बाद का समय शाम का था
रात को दो चार ढिबरिया जल गई थी
दूध दुहने के बाद गरम कर 
पीने के लिए कहा जाता था प्यार से
टाला करता था बात, तर्क वितर्क के साथ
उनके शब्दों में प्यार के साथ बेवकूफी
नहीं पीया कभी कटोरे भर दूध
काश अब पी जाता! सोंचता रहा...
आज तो धूल का दिन है
दादा जी के साथ सोने को नहीं मिलेगा
बाबू आ जाओ! आज नहीं सुना
क्योंकि मैं घूमता हुआ फिर से वही आ गया
फीके प्रकाश में धुल- धुआं की तरह उड़ता रहा
गेहूं की बालियों की सुगंध के साथ
बाल्टी भरता थ्रेसर से निकलता अनाज
यह सब देख शीतल हवा में 
मुझसे रहा न गया
डाँठ से सींक निकालकर
पानी से भरने एक गिलास 
आँगन में नल के पास आ गया
सुरकता रहा कुछ समय पानी 
लगा बदला सा था मन का स्वाद
पानी था पर यादों की खुशबू के साथ
लगा मैं पी गया शरबत जैसा एक बार में
तब नहीं पता था जूस पीने के लिए 
प्लास्टिक पाइप भी इसी तरह की होती होगी
अब वहीं आँगन में रुक गया 
दादी के पास, तुलसी के पेड़ के नीचे 
दिख रही थी, घी के दिए जलाते हुए 
लगा मैंने उनका हाथ पकड़ लिया
क्या कहूँ अब तो मैं क्या कहूँ
अपनी यादों में खो जाऊं,
प्यार भरे बचपन में लौट जाऊँ
हाँ अब तो ये यादें नहीं होती खत्म
क्योंकि यादें तो यादें होती है
कभी न भूलने वाली बातें होती है...
प्रभात "कृष्ण"


Thursday 22 September 2016

संवेदनहीनता के शिकार

संवेदनहीनता के शिकार

     मानव जिज्ञासा तो अनंत है, हम सब सबसे उच्च तकनीकों जैसे स्मार्टफोन से लैस भी है जो हमारी जिज्ञासाओं को शांत करने में मदद करते है । जैसे-जैसे हम बुलंदियों को छूते जा रहे है वैसे ही वैसे हम दिन प्रतिदिन घटनाओं के प्रति असंवेदनशील भी होते दिखाई दे रहे है । यह संवेदनहीनता और एक प्रकार का अनदेखापन हमारे लिए इतना खतरनाक है, कि हम कभी भी सांप सीढ़ी की तरह इतने नीचे जा सकते है कि वहां से फिर आगे बढ़ना ही मुश्किल हो जायेगा या हो सकता है हम नीचे जाने की बजाय अपना अस्तित्व भी खो दें । मानवीय संवेदनाओं की झलक ही न देखनी को मिलेगी और हम पशुओं की श्रेणी से भी नीचे आ जायेंगे. शायद इसलिए क्योंकि पशु फिर भी मानव से कहीं न कहीं समझदार ही लगते है.

      वह समय हम भूलते जा रहे है, जब हमारी नींद स्वतः ही समय से सुबह बिना अलार्म लगाये ही खुल जाया करती थी। आज हम अलार्म लगा कर भी नहीं उठ पाते । हमारे आस पास चेतावनी देने के लिए इतने अधिक अलार्म हो गए है, कि हम बहुत सारी अलार्म को सुनना ही नहीं पसंद करते । आज अनावश्यक और आवश्यक अलार्म में भेद करने की बजाय हम उसे अनसुना करना ज्यादा अच्छा समझने लगे हैं । इस पर मुझे प्रतिदिन की एक मेट्रो की कहानी ध्यान आती है जिसे सुबह और शाम मैं अपनी आँखों से देखता रहता हूँ । दिल्ली मेट्रो में लोग जब विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से क़ुतुब मीनार जाने वाली मेट्रो में बैठते है तो उसमें कुछ लोग हुड्डा सिटी सेंटर जो कि क़ुतुब मीनार से आगे का स्टेशन है, उससे या उससे भी आगे जाने वाले लोग होते है । जो गाड़ी क़ुतुब मीनार जाती है वह क़ुतुब मीनार से ही वापिस विश्वविद्यालय की ओर मुड़ जाती है । क़ुतुब मीनार पहुँचने से कई स्टेशन पहले से ही मेट्रो गाड़ी में स्पीकर से यह जोर-जोर सुनायी देने लगता है कि यह गाड़ी क़ुतुब मीनार तक ही जायेगी, कृपया आगे जाने वाले यात्री पहले ही उतर जाएँ तथा अगली गाड़ी के आने का इंतजार करें । मैं क़ुतुब मीनार के पहले ही मालवीय नगर स्टेशन पर इस सीट पाने की लालसा से बैठ जाता हूँ ताकि क़ुतुब मीनार जाकर मेट्रो खाली हो जाए और मैं उसी मेट्रो में बैठ कर वापिस विश्वविद्यालय अपने घर की ओर पहुच जाऊं । अक्सर जब मेट्रो अपने अंतिम स्टेशन क़ुतुब मीनार पहुँच कर वहां से मुड़ती है, तो मेरा ध्यान हर प्रकार के राजधानी में रह रहे लोगों की ओर आकर्षित होता है उनमें से कुछ लोग बड़े प्रेम से ईयर फोन लगाये गाना सुनते-सुनते मेरे साथ ही विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन की ओर वापसी करने लगते है और दिशा बदलने के बाद भी उन्हें कुछ भी अपने गलत दिशा में यात्रा के ऊपर संदेह नहीं होता । यकीन नहीं होता पढ़े लिखे लोग भी जब वापिस आँख, नाक और कान खोले कई-कई स्टेशन पीछे राजीव चौक तक का सफ़र दुबारा कर लेते है और उनके कान तक गाड़ी में लगे स्पीकर की आवाज नहीं पहुच पाती क्या वे मूक बधिर है ? हाँ वे मूक बधिर है लेकिन प्राकृतिक रूप से उन्हें कोई बीमारी नहीं है फिर भी हम एक प्रकार से अचेत और बीमार है क्योंकि हम अब अपने अन्दर  चेतना का संचार नहीं करना चाहते और न ही अपने संवेदी अंगों का भी सही इस्तेमाल करना चाहते । इसलिए हम अचेत बने रहते है ।  लगता है कहीं लैमार्क के कथनानुसार, हम अपने कुछ अंगों का अधिक प्रयोग न करने से भविष्य में हम सदा के लिए इसे खो दे, क्योंकि हम अपने संवेदी अंगों को निष्क्रिय रखकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे है ।
    हाँ उपरोक्त बातें आपको मजाक ही लगेगी, लेकिन सत्यता के प्रमाण के तौर पर आजकल आप इसे हर जगह देखते है, पिछले कुछ दिनों की एक घटना को कौन होगा, जो सुना नहीं होगा- दाना माझी को साइकिल पर लाश ले जाते हुए और हममें से कुछ लोगों ने इस तरह की कितनी घटनाएं अपने आँखों के सामने देखा भी होगा ।  लेकिन सत्यता यही है कि इन घटनाओं को हम अनदेखा ही करते रहे है ।  हम कितने भी आदर्श सिनेमा की बात कर लें, हम कितने भी अच्छे लेखो को पढ़ ले, लेकिन जब भी कोई इस तरह की घटनाएँ आती है तो हमारे आँख, नाक और कान सब कुछ लकवाग्रस्त से हो जाते है ।  अगर हैं भी तो उसका प्रयोग हम ठीक उल्टी तरह काम बिगाड़ने में करने लगे है ।  टेलीविजन में हम ऐसी तमाम सामाजिक और घिनौनी घटनाओं को देख कर बस कानून से फांसी देने की बात कर देते है ।  ऐसे प्रतिक्रिया हम तब देते है जब हमें घोंट-घोंट कर किसी एक घटना को दिखा दिया जाता है हममें से कई लोग विडियो को आगे पीछे कई बार देख-देख कर उसके लिए अपने अन्दर इतना आक्रोश पैदा कर लेते है कि उस क्षण हम उस आदमी की हत्या भी कर सकते है ।  लेकिन यह हत्या करने का विचार बहुत घातक है कि इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हम प्रिंट मीडिया में खबरों के छपे होने पर उसी घटना से पहले अनभिज्ञ होते है और क्योंकि ऐसा विचार टेलीविजन पर वीडिओ देख कर पनपता है और उसके कुछ दिनों बाद ही ऐसे सामने घट रही घटनाओं पर हम चुप्पी साधे बेसुध से बन जाते है । यह सब हमारी एक प्रकार की असंवेदनशीलता का प्रमाण है ।  जब कोई महिला किसी पुरुष की प्रताड़ना का शिकार हमारे आँखों के सामने होती है तो हम कान में ईयर फोन लगा कर गाने सुनने में मस्त रहते है । कुछ ऐसे लोग भी होते है जब उनसे  कभी कभार कोई मजाक कर देता है तो वे सामने वाले व्यक्ति को गाली दे देते है है और इतना ही नहीं उस मजाक का उत्तर देने के लिए उसकी कुटाई किसी हथियार से भी कर देने में भी हिचकते नहीं है । आजकल हर कोई गर्मजोशी से कहीं भी लड़ने के लिए आँख और दाँत निकाल कर बात करता है । शर्मनाक से शर्मनाक कहानी हम अपनी आँखों के सामने से होते देखते है लेकिन पता नहीं कौन से भीष्म की प्रतिज्ञा का शिकार हुए हम उससे अलग थलग दिखते है । कभी भी हम अपने आपको ऐसी घटनाओं के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाते ।

        आपने अभी हाल ही में बुराड़ी में हुए मर्डर के बारे में सुना होगा और पढ़ा भी होगा, हाँ टेलीविजन में अगर उसका सी.सी.टी.वी. में कैद वीडिओ भी देखा होगा तो आप उससे आहत तो हुए ही होंगे मैं भी आहत हुआ । मन में आया कि तुरंत ऐसे शख्स को फांसी मिलनी चाहिए और आपने भी यही कहा होगा ।  लेकिन हम वही लोग है कानून की बात दोहराकर थोड़ी दिन शोर मचाकर चुप हो जाते है । हमारे आस पास जब लड़की के ऊपर लगातार दिन में लोगों के सामने 27 से अधिक बार चाकुओं से हमला हो रहा होता है तो हम एक व्यक्ति से डर कर भाग जाते है और कार में बैठे गाना सुनते हुए हमारी कुछ जनता ऐसे गुजरती है जैसे हम उससे कितने अनजान है । हम घटनाओं को होते देख अनजान तो बने रहना ही चाहते है साथ ही साथ हम फांसी मिलने की दुहाई भी करते है । हम कब तक ऐसे आँख, नाक, कान बंद किये असंवेदनशील बने रहेंगे और हर बार फांसी की मांग करके चुप हो जाएंगे. आखिर हम किसी भी घटना को होते देख आगे क्यों नहीं आना चाहते?

      इस प्रकार की हजारों घटनाये हमारे संवेदनहीन बने रहने की वजह से ही घटती रहती है, कई सारे आतंकी घटनाओं से लेकर रेलवे क्रॉसिंग में मरे लोगों की घटनाये इसी तरह के चीजों के प्रति संवेदनहीनता के शिकार बनने की वजह से घटित होते है । हम न जाने कितने लोगों को गलत काम करते हुए देखते है, पर हम खुद से मतलब रखना चाहते है इसलिए भी हम असंवेदनशील हो जाते है और अपने आस पास होने वाली घटनाओं से अनजान भी बने रहते है । क्या हम अलग-अलग जगह बज रहे अलार्मों को ऐसे ही अनदेखा करते रहेंगे? हाँ करते रहेंगे जब तक हम केवल सोशल मीडिया में प्रचार प्रसार और दिखावा करेंगे, कि हम कितने जागरूक नागरिक है । इन सबके बजाय हमारी पुलिस भी कहीं पर थोड़ी दोषी है और शायद इसलिए भी हम असंवेदन शील बने रहते है क्योंकि हम अपने आपको कानून के कटघरे में नहीं डालना चाहते क्योंकि ऐसा होता आया है प्रत्यक्ष रूप से मौजूद कोई गवाह पुलिस प्रताड़ना का भी शिकार होता है. लेकिन कभी हम अगर ऐसी जघन्य अपराधों को होते देख अगर आगे आयेंगे तो हम कम से कम अपने घर और समाज में पुरस्कृत भी किये जायेंगे. सरकार को भी इस दिशा में पुरस्कृत करने के लिए कुछ उचित कदम उठाने की ओर ध्यान देना चाहिए जैसा कि कुछ राज्य सरकारे करती भी आ रही है ।  यहाँ बात संवेदनहीनता की ही है हम समाज में अगर दूसरे के लिए चैतन्य नहीं होंगे तो दूसरे लोग हमारे लिए क्यों होंगे ।  अगर हम वर्तमान मीडिया के तकनीकों के इस्तेमाल के साथ अपने आप को वास्तव में समाज के प्रति जागरूक बना लें तो शायद हम मानवीय संवेदनाओं को आहत होते नहीं सुन पायेंगे और मानव आचरण और मर्यादा का आदर्श रूप देखने को मिलता रहेगा ।

प्रभात “कृष्ण ”

Blog: अपनी मंजिल और आपकी तलाश 

एक बहस

एक बहस
-Google
होते है जब हमले तो दिल्ली इतना रोती है क्यों
कश्मीर की घाटी में ही खून हमेशा बहती हैं क्यों
राजनीति में ताने सीना खूब भाषण बाजी होती है
आकाश में गंगा बहाने की इंद्र तक बातें चलती है
रोज फाईव स्टार होटल में सितारों से बतियातें है
हमारे नेता श्रद्धांजलि तो ट्विटर पर ही दे जाते है
सैनिक गाड़े झंडा भारत की सीमा पर लड़ जाते है
शहीद पिताजी जंग जीतने को अपने बेटे सौंप जाते है 
बावजूद, थोड़ी सांत्वना दे सरकार अब सोती है क्यों
होते है जब हमले तो दिल्ली इतना रोती है क्यों
नहीं मिटे है सबूत अभी भगत सिंह के गोलों की
नहीं टूटे है शब्द वही आजाद पर अपने होठों की
डायर जैसे कायर ने अगर निहत्थों को मारा है
तो उधम सिंह ने भी कायर को घर में जाकर मारा है 
महिलाओं के माथे के सिन्दूर नहीं अगर आ सकते है
तो श्रधांजलि देने के लिए कश्मीर तो पूरा ला सकते है
चलो सौंप दो सैनिक हमें, अगर युद्द से डर लगता हो
और नहीं तो बात साफ करो की जंग शुरू अब होता है
त्यागकर सब कुछ वो तो सीमा पर फूल डाले हँसता है....
बावजूद, बस दिलासा दे कुरबानी भूल जाती हैं क्यों
होते है जब हमले तो दिल्ली इतना रोती है क्यों
कश्मीर की घाटी में ही खून हमेशा बहती है क्यों
प्रभात "कृष्ण"



Tuesday 20 September 2016

चन्दा

प्रस्तुत कविता के रूप में चंद लाईनों का सृजन अकस्मात ही चलते चलते हो गया...ये कविता नहीं बस मेरी तमन्ना के रूप में कहीं न कहीं मैं ही आ गया हूँ....

"चन्दा"

चंदा तुम्हें प्यार से देखा नहीं कभी,
मालूम नहीं मुझे कुछ हासिल हुआ है अभी
जब तक रहोगे पास हमारे भी, 
जगमगाते रहेंगे ऐसे कभी न कभी
चलने को तो मैं साँसों से चलता रहूंगा भी
तुम जुड़ जाओ मेरी साँसों से वक्त नहीं अभी 
चन्दा........

चाहता तो हूँ मैं छू लूँ गगन कभी कभी 
छुप जाऊँगा बादलों में आओगे अगर अभी
"मैं" से हम टूट जाए ऐसा न करना कभी
दुनियाँ में कोई तुम्हारा होगा अगर अभी
तो भी तुम्हारे सिवा मेरा नहीं कोई भी
तुम ही पास आओ मेरे सपनों में कभी
चन्दा........
दृष्ट कर रही इन्तजार तुम्हारे दर्शन को भी
सूरज भी भांपने लगा है आने को अभी
सभी चले जायँगे इस दुनिया से कभी न कभी
हम खे सकें तो खे ले अपनी पतवार को अभी
तुम्ही कह दो मेरे लिए कुछ शब्द अभी
मैंने तो चाहा है बस कहना नहीं कभी
चन्दा........
प्रभात "कृष्ण"

Monday 19 September 2016

आवेश

आवेश
-Google
सबसे अधिक चोट लगती है तो शब्दों से
और सबसे अधिक खुशी होती है तो भी शब्दों से
आवेश में कभी कभार हम कुछ कहते है
रोते भी है पर कहे शब्द वापिस नहीं आते है
क्योंकि सबसे अधिक चोट लगती है तो शब्दों से
टूट जाते है रिश्तों में बंधे कई हाथ
छूट जाते है प्यार भरी जिंदगी की कई रात
दोपहरिया में उदासी, रातों में नींद की उलझन
एक अलग सी छटपटाहट दर्द भरी,
मलहम लगाने की कोशिशें पर 
लगातार गुस्से में आये पसीने से तर होकर
नासूर बनी अंतरात्मा तब तक ठीक नहीं होती
जब तक फिर से वही रिश्ता पनपे न
क्योंकि सबसे अधिक चोट लगती है तो शब्दों से
और सबसे अधिक खुशी होती है तो भी शब्दों से

प्रभात "कृष्ण"

Friday 16 September 2016

फेसबुकिया पोस्ट

आप कितने उदार है। ज्ञान देते है, और हम लोग बड़े प्रेम से दो डब्बे बने बनाये स्माईल के डाल देते है। यकीं नहीं होता मैंने अपने जीवन में इतनी सुंदरता से अभी हंसा होऊंगा। लेकिन बात क्या है न यहाँ का समाज तो कितना अच्छी तरह से बनता और बिगड़ता है, बनता है तो दूषित कहलाता है और बिगड़ता है तो प्रदूषित।
अरे भाई ई बात है न हम ठहरे बहुत सीरियस जिसे आप कभी कभार इंनोंसेन्ट केहि देत थिंन। और आप जब वह पर कोनों कमेंट पास करत जात थिंन तो हम बहुत देर बाद सोंच समझि के पूरा अपने ज्ञान के भण्डार में जाइके एक टिप्पणी उह पर कई देत थेंन। अऊर आप के बाते अलग है आप न ठहरे यूरोप और वहां से अमेरिका गए गोरी प्रजाति के लोगन यही नाते बड़ई जल्दी उह पर जुकरबर्ग कै हंसी वाला घोड़वा हम पै छोड़ देत थिंन। काहे भाई हमरे मान सम्मान इतने प्यार वाला।
नहीं जी आप न सच में बहुत अच्छी तरह जीना जानते है। हमारे यहाँ बात बात को शपथ पत्र मान लिया जाता है और आपके यहाँ हर बात को हसगुल्ला। आपको अगर कोई लड़का पसंद कर ले तो आप उसके प्यार को नकारती नहीं और न ही कभी हम जैसे समाज की तरह चप्पल बरसाती है। आपसे मैंने नमस्ते कर लिया तो आप हाई बोल कर 2 शब्द प्रेम से हाउ आर यू पूछ लेती है । हम जैसे लड़के व्हाट्स एप पर आपको इतना सजा के जवाब देते है कि आप जरा सा भी सीरियस नहीं होते और दूसरे दिन एक उत्तर में "हम्म" बरस जाता है और हालात यह होती है आपकी प्रतीक्षा में हमारा वह रात एक गाना की तरह "न जाने कितने दिनों बाद ......."; सोंचते और मुस्कराते चला जाता है।
आपका समाज कितना अच्छा है न आप को फ़िक्र ही नहीं। कुछ नहीं तो जब हम आपकी बातों पर मुस्कुरा रहे होते है तो आप मेरी मुस्कराहट पर हंस रहे होते है और कह देते है अरे क्या हुआ। भाई बात की कदर सोशल साइट पर और ज्यादे संवेदनशीलता से दिखती आ रही है सॉरी लेकिन आप संवेदन शील नहीं है आप रूचि रखते है कि हमारे लाईक और हमारी ब्यूटी दिन प्रतिदिन के एप्पल वाले फोन की सेल्फी से कितने बढ़ रहे है । आप लड़की है तो थोड़ा मुह बना देती है तो और कमेंट हम जैसे लड़के ठोक देते है, सेक्सी कह दिए तो बड़ा सा थैंक यू आता है उसका यू फोटो से भी लंबा होता है। और क्या कहें, अपना अकॉउंट चेक करके इतना खुश होती है आप क्योंकि आप के 100 फॉलोवर इनबॉक्स में लव यू कहते है और आपके फ्रेंड रिक्वेस्ट में पूरी गोल दुनिया इसलिए छायी रहती है क्योंकि आप सिंगल लगा कर मेरे जैसे न जाने कितनों के चेहरे पर मुस्कान डाल देती है।
मैंने भी चाहा क़ि कमस कम अपने फ़ेसबुक के मेल दोस्तों के साथ ही साथ फीमेल दोस्तों के बारे में जान लिया जाये क्या पता हम कभी काम आ जाये। पर हमारे सवाल सुनकर वो कहती है कि आप स्ट्रेंजर हो, कुछ का जवाब ही नहीं आता और कुछ बहनों का आता भी है तो अपने भाव इस तरह मारती है जैसे उनको लाइन मारने लगा हूँ। कुछ तो अन्फ़्रेंड कर दिए मैं "दिया"; लेकर अपने वार्ताओं के द्वारा घिरे "अंधकार" से निकलना चाहता हूँ और आप में से कोई फिर कहता है अरे सीरियस प्राणी मुझे अच्छे नहीं लगते। मैं समझ जाता हूँ यहाँ सबका दिल से जुड़ाव है ही नहीं यहाँ तो बस बिक्री और खरीददारी चलती है। शायद मैं भूल गया भईया रिश्ता से ज्यादा महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था है..इसलिए क़ि; "न बाबू न भईया सबसे बड़ा रुपइया"।
प्रभात "कृष्ण"


Wednesday 14 September 2016

मातृभाषा है...

अभी समय मिला तो सोंचा हिंदी दिवस पर कुछ न कुछ लिखना जरूरी है इसलिए नहीं कि मेरी भाषा है इसलिए की यह आमजनों की भाषा और हमारी माँ है। राजकीय भाषा बने होने के नाते मुझे लगता है कि हम कही न कहीं किसी सन्दर्भ में गुलाम तो हैं ही, किसी देश की भाषा अगर एक नहीं हो सकती तो किसी गुलाम भाषा भी हमारी भाषा नहीं हो सकती। विभिन्नता में स्वतंत्रता निहित है इसलिए भी मुझसे कुछ कहे बिना नहीं रहा गया। तो लीजिये हर बार की तरह 2-4 लाइनें और हिंदी को समर्पित है।

-Google
इंग्लिश को रख दू साइड घर में हो गया डिसाइड
हिंदी ने अवसर दिया है, मन से अपनी बात कह दूँ
भाषा में नहीं जकड़ना तुम भी कहीं न झिझकना
साहित्य की भाषा न हो सही, मन की बात कहना
प्यार मिला है इतना हिंदी से अब मिल गया है सबूत
अंगरेजी से न मिल पाया अब तक प्रूफ हो गया बहुत
मेरी तरह ही तुम भी चाहो तो किस्मत आजमा लो
तुम भी किसी एक भाषा को अपनी माँ बना लो
मेरी भाषा ही नहीं, हिन्दी की बोली भी मिली है
भाषा पर गर्व है क्योंकि इससे आजादी भी मिली है
अब समझना तुम्हे है इसे राजभाषा ही न समझिये
मातृभाषा है इसे दिखावे में अलग थलग न कीजिये
हिंदी ने ही प्यार , परिवार, अच्छे दोस्त दिए है इतने
हिंदुस्तान को कोई कंपनी अब नहीं आ पायेगा जीतने
अभिव्यक्ति है हम स्वतंत्र है, फिर क्यों अंग्रेजी आम है
अफ़सोस है हम समर्थ है, क्यों फिर अंग्रेज के गुलाम है
प्रभात (कृष्ण)

Tuesday 13 September 2016

गाँव मेरा बदल गया, घर मेरा नहीं बदला

परिवर्तन की इस होड़ में, “मैं” नहीं बदला
गाँव मेरा बदल गया, घर मेरा नहीं बदला
मेरा घर 

कुछ कहानियां बदल गईं, भाव नहीं बदला
परिस्थतियाँ बदल गई, झुकाव नहीं बदला

कुछ गाने बदल गए, कुछ पैमाने बदल गए
रस्म, रीति-रिवाज और मयखाने बदल गए
जमाने बदल गए, फिर ठिकाने बदल गए
परिवार बदल गया, हमसफ़र नहीं बदला
गाँव मेरा बदल गया, घर मेरा नहीं बदला  (१)

छप्पर बदल गया नीचे चूल्हा बदल गया
हवा बदल गयी,  हेलीकॉप्टर बदल गया
टिड्डियों, तितलियों का जत्था बदल गया
बारिश बदल गयी, एहसास नहीं बदला   
गाँव मेरा बदल गया, घर मेरा नहीं बदला  (२)  
     
फसल बदल गए, पानी-बरहा बदल गया
चावल का ज्योनार और चरहा बदल गया
फसल लोकगीत और बिरहा बदल गया   
खलिहान बदल गए पर खेत नहीं बदला
गाँव मेरा बदल गया, घर मेरा नहीं बदला   (३)  

प्रभात “कृष्ण”

रेत पर बैठकर भींग जाऊंगा

ख्वाहिशें दिल की हैं जो कुछ
जब कभी पूरी न होंगी
तो रेत पर बैठकर भींग जाऊंगा
-Google
आँसुओं की धार जारी हो
इससे पहले तट पर लेट जाऊंगा
संगम के वेग को थामने   
मैं शिला बनकर पहुँच जाऊँगा  
फैसले से ज़िन्दगी में भटकूँ गर
साँस को रोकना सीख जाऊंगा
पसीने से तर होगी हथेली तो
शीतल मुस्कुराहट दे जाऊंगा
चमकते तारे में देख तुम्हे  
प्रकाश जुगनूं का सौप जाऊंगा  
प्रभात “कृष्ण”

Saturday 10 September 2016

नन्ही चीटियां

-google
बहुत दिनों से चीटियों को देख रहा हूँ
अपने कमरे की दीवारों पर,
कोने कोने में रेंगते हुए
आटा, चावल, दाल, खाने की हर वस्तु में
गैस के गर्म चूल्हे पर,
पानी के ठन्डे बोतलों पर,
मेरे बिस्तर के कई परतों के बीचोबीच
मेरी देह पर पसीनों में चलते हुए
मैं कमरे की वस्तुओं को छिपाता रहा
वो करती रही पार, हर प्रकार की बाधाओं को 
जिसे मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ 
हर दिन उनके परिश्रम और लगन की कहानी को
चीनी के डिब्बे के अंदर भी उन्हें घुमते हुए
सुना था कभी आटे से दूर भागने की बात
आजमाता, उससे पहले देख रहा हूँ 
आटे के बंद पैकेट पर अंदर और बाहर
मैं थक गया रखते रखते सामानों को 
दूर अपनी भी पहुँच से छत के करीब
मगर वो मुझे सिखा गयी,
असंभव कुछ भी नहीं इस धरा पर
मैंने इधर - उधर एक ही सामान को 
कुछ समयांतराल का प्रयोग किया
इधर -उधर एक ही चीज़ को छुपाने की
मगर वो मेरे समय से बहुत पहले उपस्थित रही
उन चीज़ों में जिसे मैंने कभी सोंचा भी नहीं था
हारकर मैंने अंतिम प्रयोग किया
चावल के पैकेट को 
जंग लगी कुर्सी के गद्दी के बीचोबीच रखकर
जंग को भी पार कर गयी,
दिखा गयी अपनी शत प्रतिशत उपस्थित
अब मेरे पास लक्षमण रेखा ही बचा था
कहने को हिंसा का यह अंतिम प्रयोग
मैंने खींच दिया 2 चार लाइनें 
और वो अब दिख नहीं रही कही भी
शायद मैं हार गया ऐसा करके
जीत गयी वो छोटी लाखों चीटियां 
मुझसे तैयार थी हर तरह से लड़ने की
किन्तु अहिंसक तरीके से ही....
बड़े पाठ पढ़ा गयी वो नन्ही चीटियां ।
-प्रभात