Monday 29 August 2016

विहान आया है

अब फूल बनकर खिलखिला दो
आंसुओं में मुस्कुरा दो
विहान आया है
फिर से प्रभात आया है
गूगल  से साभार 

वो संध्या भी छिप  गयी
वो हमारी तारा भी छिप गयी
नेह, स्नेह देकर सितारा भी छिप गयी  
इस पतझड़ में नया राग सुना दो
फिर से ऋतु बसंत ला दो
अब फूल बनकर खिलखिला दो
आंसुओं में मुस्कुरा दो
विहान आया है
फिर से प्रभात आया है 

राधे! प्रीत की लगन है
प्रेम में कोई भी मगन है
अब कृष्ण भी तो रंग है
भावों को ही खूबसूरत बना दो
कलकल करती नदियों की
और पर्वत की बाहों में
खुद का अहसास करा दो
अब फूल बनकर खिलखिला दो
आंसुओं में मुस्कुरा दो
विहान आया है
फिर से प्रभात आया है

-प्रभात "कृष्ण"



  



Sunday 21 August 2016

प्यार करता हूँ..

गूगल से साभार 
एहसास दिलों की लेकर, इक बात कहता हूँ
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
हाँ मैं तुम्हें प्यार करता हूँ.......
दिन -रात तकूँ कल्पित चेहरे को तेरे
मोह लिया जिसने प्रियतम को
जिसने देखा छुपे तारों में तुमको
हर-पल सकूँ देख मन से ऐसे गहरे
बहार फूलों का लेकर, इक बात कहता हूँ
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
हाँ मैं तुम्हें प्यार करता हूँ.......

प्रभात "कृष्ण"

फोन का अलार्म

                                                     "फोन का अलार्म"
       फ़ोन पर प्रणीत का नाम देखकर बड़े जल्दी में मैंने फोन उठा लिया, हाँ दोस्त नमस्ते कैसे हो? मैंने अपने अंदाज में ८ साल पुराने मित्र से यह पुछा. हाँ मैं ठीक हूँ, बहुत प्रेम से उसने कहा. अच्छा पुनीत मुझे शुक्रवार को दिल्ली आना है, मेरी फ्लाईट सुबह 5 बजे पहुंचेगी. फिर तुम दिल्ली में रह रहे हो और तुम्हारे पास ही रुक जाऊंगा क्योंकि मुझे उसी रात फिर फ्लाईट पकड़ कर लखनऊ कवि सम्मेलन में जाना है. मैंने खुशी से हाँ में उत्तर दिया और खुशी भी हुयी कि अपने प्रणीत दोस्त से मुलाकात भी हो जायेगी और फिर शुक्रवार मेरे ऑफिस की छुट्टी भी है, तो मैं उसे पूरा समय दे सकूँगा.
     फोन आने के ही दिन बुद्धवार को ही मैंने उसके आने से पहले ही अपने कमरे की अच्छे से सफाई की और सभी अस्त व्यस्त पड़े सामानों को अच्छे से व्यवस्थित किया. वृहस्पतिवार को ऑफिस से आने के बाद थका था और ऑफिस का कुछ काम भी बचा था उसे करने के चक्कर में मैं अब तक अपने दोस्त के आवागमन का ख्याल मानों दिल से निकाल चूका था. मैं 2 बजे रात तक ऑफिस का काम निपटाने के चक्कर में जगा रहा. अगले दिन यानी शुक्रवार को जब मेरी नींद खुली, तो एकाएक मेरा ध्यान सामने टंगी दीवाल घड़ी की ओर गया. मैंने देखा ११ बज रहे थे और दोपहर की धूप कमरे की खिड़की से प्रवेश कर रही थी. मुझे ११ बजे का समय देखकर तनिक भी विश्वास न हुआ, लगा किसी सपने में हूँ फिर उठकर अपनी आँखों को और थोड़ा घड़ी के पास ले जाकर देखा तो मुझे विश्वास ही करना पड़ा.
      मेरे फ़ोन का अलार्म तो अक्सर आज के दिन 9 बजे बज भी जाता है और बंद भी, पता नहीं चलता था परन्तु मैं फोन की स्क्रीन भी दबा कर अलार्म को ऑफ़ करना चाहा तो देखा मित्र प्रणीत के 24 मिस्ड कॉल और एक घर से कॉल. खैर अब तक तो पूरी कहानी का बोध हो चुका था..समझ से बाहर था कि अब उसे कैसे अपनी मजबूरी बताऊँ और वो मुझ पर विश्वास कर सके कि मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया................................

प्रभात"कृष्ण"

Sunday 14 August 2016

जो शहीद हुए है!

जो शहीद हुए है ........
(70 वे स्वतंत्रता दिवस पर विशेष)


           जो शहीद हुए है उनकी जरा याद करो कुर्बानी....हर कोई २६ जनवरी और १५ अगस्त के दिन इस गीत को सुन ही लेता है....इस गीत को सुनते ही देश प्रेम की जो भावना जाग्रत होती है उसका बखान हर कोई अपनी ही तरह से कर सकता है. हम जब स्कूल में थे तो यह गीत दूर से ही सुनने पर ऐसी भावना का संचार कर जाता था जिससे हमारे कदम तेजी से आगे बढ़ने लगते थे और साथ ही साथ दिल की धडकनें, साँसे सबकी अनुभूति आँखों में आंसुओं के रूप में आ जाती थी और इस जोश में हमारे बोल “मेरा नाम आजाद” की तरह हो जाते थे. मैं “थे” का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि ये सब इस गीत का प्रभाव है और गीत हम कभी कभार सुनते है.
पहले मेरे दादा जी बीबीसी उसी प्रकार से सुनते रहते थे जैसे आजकल लोग दिल्ली का एफ.एम.. मैं भी उनके साथ बैठता था तो न सुनना चाहते हुए भी बातें कानों के खुले रहने की वजह से अन्दर पहुँच  ही जाती थी. मैं बात कर रहा हूँ अपने बचपन की. बचपन में हमारे स्कूलों में हफ्ते भर पहले से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस की तैयारियां शुरू हो जाती थी. हम भी अपने भाषण और गीत को लेकर इतने उत्साहित होते देखे जा सकते थे कि जैसे लालकिले से मैं ही बोलने वाला हूँ. तब ये गीत कभी नहीं सुनने को मिला था  “तुझे अपना बनाने की कसम खाई है”. क्योंकि हमारे घर में टीवी भी नहीं था और था बस रेडियो वह भी दादा जी के हाथों में बी. बी. सी.. सारी आजादी की कल्पनाये राष्ट्र कवियों के लिखे गीत वाली पुस्तक से और अपने सरकारी पाठ्य पुस्तक से कई पाठ जो आजाद, बोस, भगत, गांधी जी आदि पर लिखी होती थी उन्ही से पढ़कर आजादी कर लेते थे और तब तो अपनी मर्जी के मुताबिक कोई राष्ट्रीय गीत चाहकर भी सुन नहीं सकते थे क्योकि कोई ऐसा साधन उपलब्ध नहीं होता था.
          उन दिनों मुझे तो ठीक से पता भी नहीं था आजादी मतलब क्या होता था फिर भी आजादी के दिन को लेकर उत्साह और भाषण सुनाने और सुनने की ऐसी हलचल होती थी जिसका सम्पूर्ण गाथा अब लिख पाना मुश्किल है. ऐसा इसलिए था क्योंकि देश प्रेम का माहौल उन दिनों देखने को मिलता था. जिज्ञासा थी कुछ सीखने की और सीखते थे भी. दिल्ली में नवाबों के पतंग उड़ाने की प्रथा का ज्ञान बिलकुल नहीं था. लाल किले पर पीएम के झंडा फहराने के स्थान के भीड़ को लेकर भी कोई ज्ञान नहीं था बस थोड़ी बहुत कल्पनाएँ कर लेता था. मिठाईयां स्कूलों में जो मिलती थी वह तो एक इनाम सा मिलता दिखता था जब हमारे घरों में गुलाब जामुन बनाये जाते थे तो वह भी अपने स्कूल के लिए अपने स्कूल में लड्डू, बताशे, गुलाब जामुन से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस कार्यक्रम का अंत किया जाता था. कभी किसी कवी को सुना नहीं था. कवी हम स्वयं होते थे. गीतकार सारे अध्यापक. हमारे स्कूल में कुछ ग्रामीण लड़के और लड़कियां तो जब गाती थी तो जैसे “जो शहीद हुआ था” गाने पर भावना उत्पन्न होती थे वैसे ही भावना उत्पन्न होने लगती थी यह गीत वह स्वयं लिखा करते थे, स्वयं ही गाते थे और बजाते थे... ढोल नहीं...ढोल की जगह मेज होता था और डंडे की जगह उनका हाथ. बचपन की बातें जितनी की जाए कम ही है बस कहने का मतलब इतना है कि कम ज्ञान और कम समर्थ होने के बाद भी जो देश प्रेम की भावना थी वह शायद अब खो गयी है.
          अब जिन्दगी मानों काजोल के प्रेम पर आधारित हो ही नहीं अब प्रेम तो सनी लीयोन वाली ज्यादा देखने को मिलती है. देश प्रेम की बात क्या ही कर सकते है. सब कुछ बदल गया है, बीबीसी वाली रेडियो, महाभारत, रामायण, जय हनुमान, नया सवेरा, मैं दिल्ली हूँ, श्रीकृष्ण, दूरदर्शन  वाली टीवी, वह गाँव से बाहर 2 रूपये मिनट वाला पीसीओ, वह अंतर्देशीय कार्ड वाला डाकखाना, उस बरगद के पेड़ के नीचे गाँव में लगे चौपाल, वो बैलों वाले खेत, अनाजों वाले खलिहान. जिन्दगी जीना ही बदल गया है अब आकाशवाणी व्हाट्स एप पर होती है. नहीं सोंच रहे कि हम कितने सेल्फिश होते जा रहे, देश की प्रगति और दूसरों की प्रगति का किसे ध्यान. नौकरी करने के पीछे लोग इस कदर भाग रहे है कि जिन्दगी भर की कमाई तो सरकारी फॉर्म भरने में पहले ही लगा दे रहे कुछ पैसे इंटरव्यू में रिश्वत के रूप में कुछ ट्रान्सफर के लिए. इस नौकरी को करने के बाद सारी वसूली करने में जिन्दगी मौत तक पहुँच कर कभी लौट आती है तो कभी मौत ही के पास चली जाती है. आजाद भारत में हम आजाद कहाँ है यह सोंचे तो हम लोग बहुत पीछे चले जायेंगे और अगर हम न सोंचे तो बिलकुल पीछे चले जायेंगे.
          हम बस अंग्रेजों से ही तो आजाद है, आतंकवाद ने जकड़ ही रखा है कभी नक्सल कभी आई.एस .आई तो पकड़ रखा है. हम पहले अंग्रेजों के अत्याचार से परेशान थे अब हम अपनी सरकार और पुलिस के अत्याचार से परेशान है. कभी हमें कोई भावुक करके पीएम और सीएम की कुर्सी पा जाता है तो कभी हमें कोई लूटकर और मार कर मंत्री बन जाता है. कोई करोडपति मात्र धर्म पाखण्ड पर बन जाता है तो कोई अपने संस्कृति को दुबारा उजागर करने के नाम पर कुछ सिखाने के बहाने अरबपति भी बन जाता है. कुल मिलाकर स्वार्थी मानसिकता ने तो जीवन को इतना आसान बना दिया है. कि उन्हें रास्ते से हटाने में किसी को कोई दिक्कत नहीं अगर वे किसी तरह से बाधक बनते नजर आते है. लोग एक दूसरे को ब्लेम करके बन्दर बाँट करने की राजनीति करते नजर आ रहे है. किसी को नहीं दिख रहा कि देश के आजादी के मायने क्या है. भगत सिंह के सपनों का क्या हुआ?
          आज अखबारों में कुछ लिखने वाले लोग और न्यूज चैनल में एंकर बने लोग कौन है यह सोंचने की जरुरत है मात्र पैसों के लिए लोग कभी कभी कुछ भी लिखने और कहने के लिए तैयार हो जाते है. आज गरीब और अमीर के बीच की खाई के बारे में कौन सोंचता है, गरीब वास्तव में उपेक्षा का शिकार हो रखा है इसलिए हमारे नेता इनकी राजनीति कर अपना वोट भरने में सफल रहे है. धर्म/ संप्रदाय पर राजनीति कर के मंदिर/मस्जिद बनवाने के नाम पर तो पार्टियाँ चलती आयी है..कोई अगर सच कहने की कोशिश करता है तो उसे आतंकवाद करार देकर फांसी का तख्ता तक दिखाने में कोई कसार नहीं छोडी जाती है. गुनाह करने वाले कौन लोग है? अगर सोंचा जाए तो उपेक्षित लोग है, वंचित लोग है, वही गरीब है जो फूटपाथ पर सोते हुए कुचल दिया जाता है. जेल में पड़े लोगों की बात करना ही बेकार है, मैं हैरान हूँ आज जेल में पड़े लोगों में से ज्यादातर बेक़सूर है और वे अपनी जिन्दगी कठघरे में इसलिए गुजार रहे है क्योंकि वे पहुँच वाले नहीं है. क्या हम आजाद है?
           यह अपमान होगा उन देश भक्तों का जो शहीद हुए है अगर हम कह दे कि “हम कहाँ आजाद है” ऐसी मानसिकताओं वाले लोग हमारे आस पास बहुत है लेकिन वे ये नहीं सोंचते कि उन देश भक्तों के सपनों का आजाद भारत कैसा रहा होगा. क्यों हम एक दूसरे को प्रताड़ित करने के लिए अपना द्दिमाग लगाते है. इसलिए क्योंकि आज हम सच में अंग्रेज ही बन गये है. हमारे खान पान और रहन सहन के स्टाईल ही ऐसे हो गये है कि हम पशुओं से भी बुरे बनकर रह गये है..हम उसे तुरंत स्वीकार कर लेते है जिसमें हमारा फायदा हो दूसरों का नुकसान हो, हम उसे कतई भी स्वीकार नहीं करते जिसमें हम सबका फायदा हो. और अगर ऐसा करेंगे तभी तो हमारे देश की प्रगति होगी.
           हम नहीं चाहते हम अपने आपको बदले, यह ठीक है क्योंकि हम वास्तव में प्रगति कर रहे है लेकिन यह प्रगति किस मायने में है अपने आपको बंधन मुक्त करने के लिए ? नहीं अगर आप सोंच रहे है कि हम केवल प्रगति कर रहे है तो गलत है हम प्रगति एक दूसरे से सामंजस्य बिठा कर नहीं कर रहे है, हमें अपने स्वार्थ के सिवा कुछ नहीं दिख रहा अगर ऐसा दिखे तो हमारा भारत कैसा होगा मैं बताता हूँ..अम्बानी का घर झोपडी होगा, मोदी का पहनावा केवल खादी का होगा, अफसरों की कुर्सी के पीछे सीसीटीवी होगी, नेताओं के जुबानों की कद्र होगी, आधे पुलिस अधिकारी जेल में होंगे, कोयल..मैना...गिद्ध....बुलबुल....गौरैया सब दिल्ली के लाल किले पर घूम रहे होंगे, पीओके अपना होगा, प्रधानमंत्री से हम भी मिल सकेंगे, हम गाँव की ओर लौटेंगे और सरकारी नौकरी चाहने वाले लोगों की संख्या शून्य होगी, सिन्धु घाटी की सभ्यता दिखेगी और यमुना में खिले कमल की ओर सब रुख करेंगे, पीएम की कुर्सी कोई लेना ही नहीं चाहेंगा, सीएम और कलेक्टर कोई नहीं बनना चाहेगा क्योंकि तब लोग तभी बनना चाहेंगे जब उन्हें अपने कर्तव्यों का बोध होगा.
          हाँ मैंने जो भी कुछ कहा सब असंभव दिख रहा है क्योंकि हम भी नहीं चाहते लेकिन कब तक नहीं चाहेंगे, हमारा भी कहीं न कहीं अंत होगा.....इसलिए आज स्वतंत्रता दिवस के इस पावन अवसर पर हम इस दिशा में अपने सोंच को बढ़ाने का प्रयास करें जिधर हम अपने देश की प्रगति कर सकने में मदद कर सके उस ओर कतई नहीं जिधर केवल अपना स्वार्थ ही सिद्ध हो. तब तो इस आजाद की भावना की कद्र हो सकेगी और कह सकेंगे गर्व से कि हम आजाद है....
- साभार 
प्रभात “कृष्ण”

         

Saturday 13 August 2016

कहानी जारी है

कहानी जारी है---
अब तक:  ट्रेन तो छूट गयी मगर लखनऊ पहुंचने का आत्मविश्वास कायम था । जबकि यह छूटने वाली ट्रेन उस रुट पर जाने के लिए अंतिम ट्रेन थी दिल्ली से जाने के लिए। एक ट्रेन और थी मगर लखनऊ ऐसी स्पेशल उसे केवल 11 बजे रात को जाने के लिए दिखाया जाता है ऑनलाइन मगर ऑफलाइन कभी जाते हुए देखा नहीं । फिर भी इसमें भी ट्राई किया ही जा सकता है ऐसा सोंचकर थोड़ा पसीना पोंछते हुए पूछताछ काउंटर की और हम दोनों प्रस्थान करने लगते है...... 
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            रेलवे स्टेशन पर हम दोनों वैसे ही खड़े थे जैसे रेलवे स्टेशन पर पहुँचने के बाद अक्सर भीड़ में लोग खड़े होते है, ठंडी के मौसम में बस एक एक पिट्ठू बैग लटकाए और जम कर गरम कपडे पहनने के बाद गर्मी का अहसास होना स्वाभाविक था. सारे कपडे पसीने से डूब गये थे यह कोई स्वेटर की विशेषता नहीं थी पसीने की वजह, जल्दी-जल्दी में भागम-भागी और ट्रेन पकड़ने में असफल होने से थी . सोंच रहा था काश कोई ट्रेन हमें लखनऊ पहुंचा दे तो अच्छा होता. मैंने अपने दोस्त से पूछा और बड़े असमंजस के साथ उत्तर भी मैंने खुद ही दे दिया कि भईयन अब क्या होगा? दोस्त मुझे भाई भी मानता है, मुझे वह छोटे भाई की तरह लगता है. उसने कहा भईया बड़ी मुसीबत है, एक बात बोलूं? मैंने कहा, हां... बोलो? बस से नहीं चल सकते? दोस्त ने इतना कहा ही था...,जैसे लगा भगवान् ने हमारी बात सुन ली. एक आदमी दाढ़ी वाला उसी भीड़ में प्रवेश किया बोला हाँ किसी को कनफर्म्ड टिकेट चाहिए....मुझे जानने की उत्सुकता हुयी क्योंकि किसी ने कहा था कि रेलवे स्टेशन पर कुछ लोग घूमते है जो टिकेट कन्फर्म दिला देते है परन्तु ११ बजे कौन सी ट्रेन लखनऊ जाती? यह सवाल मन में एक संदेह के रूप में उत्पन्न हुआ. और सब लोगों से पूछते हुए हमसे वह आदमी कनफर्म्ड टिकेट के बारे में पूछा, चाहिए ? मैं बोलता उससे पहले दोस्त ने कहा कि, नहीं! मैंने भी दोस्त की बात में हा मिला ही दिया. एक रोचक बात जानने की उत्सुकता थी.... कि कौन से ट्रेन में दिलाओगे? वह बूढ़ा दाढी वाला व्यक्ति कहा, भाई तुम्हे टिकेट कनफर्म्ड मिलेगा एसी का.......मैं जानता था एक ट्रेन तो है पर टिकेट कनफर्म्ड कैसे मिलेगा जब वेटिंग ही रेलवे के वेबसाईट पर शो नहीं कर रहा है.
           परन्तु सहज ही जानने की उत्सुकता ने उस बूढ़े दाढ़ी वाले से एक ही पंक्ति में कई सवाल कर डाले. कैसे मिलेगा ? कौन सी ट्रेन में ? अगर न दिला सके तो ? उसने सबके जवाब सज्जन व्यक्ति की तरह दे डाले. पहले चलो मेरे साथ आओ. मैं बात करा दूंगा ऑफिस में. फ्रॉड नहीं है जो समझ आये दे देना लिखित में वो जितना लगेगा...पर एक सवाल मैंने किया, और आपको क्या फायदा होगा? पर उससे नहीं पूछा ? सारे उत्तर आपस में हमने गुफ्तगू करके अपने आप से निकाल लिया. अपने दोस्त से पूछा, भाई! एक बार देखे क्या कि ये कैसे टिकेट दिलाता है....बात तो ठीक थी, जरुरत ने किन्तु या परन्तु को बोलने से थाम भी रखा था. मैंने दोस्त से बोला भाई रात को रिस्क से ले लें क्या? क्या पता सही में दिला दे टिकेट और अगर नहीं भी मिलता तो इस बूढ़े को हम दोनों देख लेंगे ...होगा तो चोर होगा उससे भी निपट लेंगे....दोस्त तैयार हो गया उसने मुझे ढाढस दिलाया और कहा भईया आप बस अपने स्मार्टफोन को कहीं अच्छे से छुपा लो और मैं अपने नोकिया १२०० को भी. पर्स भी अन्दर बाकि ......कहते हुए उसने अपना बेल्ट चेक किया...कहा आज मारना भी पड़े तो साले को मारेंगे इसी से, मैंने भी जोर का हामी भरते हुए बुड्ढे के साथ रेलवे स्टेशन से दफ्तर जाने के लिए तैयारी कर ली. हम साथ थे और बुढ्ढा दाढी वाला हमें पता नहीं किस दफ्तर ले जाने के लिए आगे आगे चल रहा था.... हम दोनों पीछे-पीछे वो आगे-आगे. रेलवे स्टेशन की भीड़ भाड़ से बाहर सड़क की ओर से गली की ओर तक ले गया......वहां देखने में काफी भीड़ थी इतनी रात को दुकानों की वजह से भीड़. हाँ वह भीड़ अब उस प्रकार की नहीं थी जो काउंटर पर टिकेट लेने वाली होती है. दोस्त ने बुड्ढे दाढी वाले से पुछा भई कहाँ गोदाम/दफ्तर  है वह तेजी से चले जा रहा था...मैंने कहा भई स्टेशन का दफ्तर इतनी दूर दुकानों की भीड़ से अलग गली की ओर कैसे? उसने कहा आते जाओ चिंता मत करो मुझे सब जानते है किसी से मेरे बारे में पूँछ लो. वह गली बच्चों की भीड़ से भी भरा था परन्तु सारे दुकानदार उसे सच में पूछ रहे थे. अरी चाचा कहाँ अब? मैंने सोंचा सब इधर हमारी तरफ क्यों देख रहे है क्या हम अजनबी है? गलियों में हमें सब तो नहीं परन्तु कुछ ईमानदार और सज्जन लोगों की आंखे कुछ कहती हई दिख रही थी.. हाँ शब्द मुह से उनके निकल नहीं पा रहे थे शायद वे विवश थे क्योंकि उनके धंधे आपस में जुड़े हुए से लगते थे.
         हमें कहते-कहते अब वह बुढ्ढा और बहुत दूर ले गया जहाँ पर रेलवे की तरफ से बोलती वह लडकी की आवाज भी सुनायी नहीं दे रही थी जिसमें वह बड़े प्यार से बोलती है “ ट्रेन नंबर १-०-०-०-१-२ भारत एक्सप्रेस, गाँव से चलकर गली-गली से होते हुए शहर को पहुचने वाली अपने निर्धारित समय से बहुत लेट हो गयी है, असुविधा के लिए खेद है” शायद यह आवाज उस गली में अगर सुनायी देती तो अजनबी रास्ते न मालूम पड़ते, किन्तु दुर्भाग्य से हम दोनों के अलावा लोग भी थे, हमारा साहस भी, पुलिस बूथ भी,और इतना ही नहीं वह बुड्ढा दाढी वाले से दोगुने तो हम थे ही, परन्तु सब कुछ बेकार था क्योंकि सब दुर्भाग्य था, एक सोंच के लिए जिस अन्याय के लिए लड़ने हम रात को निकले थे लखनऊ के लिए वह अन्याय का कारण ये बूथ, ये भीड़, ये बहादुरी सब कुछ दोषी थे वे सब बेकार पड़े थे. हमारे दिल में आ रहा था अगर वहां दफ्तर पहुँचने के बाद कोई बैठा हुआ गिरोह जो हमें कुछ खिला पिला दे और चाक़ू के सहारे लूट ले बस डर का अधिकतम व्याख्या इतनी ही थी जो दिमाग में चल रही थी और अब थोड़ा ठहर जाने के लिए विवश कर रही थी...इसलिए हम रुके, मैंने पुछा एक रेड़ी वाले से जो गोलगप्पा बेच रहा था, धीमी आवाज में .......भाई तुम इसे जानते हो जो कनफर्म्ड टिकेट दिलाने के लिए लिवा जा रहा है. उसने संकेत दिया और धीरे से कहा...कुछ नहीं लौट जाओ तुम लोग, मैंने पीछे देखा अब भी देर नहीं हुयी थी बहुत दूर तो नहीं थे पर पास भी नहीं.....बड़ी तेजी से मैंने बुड्ढे से बोला? अरे पगले रुक हम जा रहे है पता लग गया मुझे तू क्या है? किसने कहा?... बुढ्ढे ने बड़ा भावुक होने का नाटक किया और कहने लगा विश्वास नहीं बड़ी जोर जबरदस्ती करने की कोशिश के साथ मनाने में लगा रहा ...हमने कहा, नहीं चाहिए तेरा टिकेट, लौट जा...वह गालिया देने लगा और हम दबे पाँव उलटे रेलवे स्टेशन के पास आ गये ...देखा वह भी पीछे-पीछे हमारी ओर आ गया रात के ११ बजे अभी लेट नहीं हुए थे....अब मित्र के उत्तर की तरफ ध्यान गया बस अभी होगी....यही एक उपाय है भले ही ट्रेन की तुलना में अधिक किराया लगे और उतनी सुविधा न मिले, समय अधिक लगे पर सुबह डी. जी. पी. ऑफिस पहुँच तो जायेंगे.

           अतः हम हिम्मत हार करके बस अड्डे का पता और बस का ठिकाना पूछने के लिए फिर से बैग में हाथ डालकर अपने अपने मोबाईल निकालने लगे, ताकि अपने एक दो और मित्र से बस के बारे में जानकारी प्राप्त कर ले और मोबाईल को जेब में पुनः रख ले. मित्रों से बस के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी फ़ोन पर मिल गयी, अब चैन मिला जाकर कि चलो बस पकड़ लेते है..और नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन से पुनः मेट्रो मार्ग से आनंद विहार बस अड्डे की ओर प्रस्थान करने लगते है......अरे भईयन! अच्छा हुआ जो हम आ गये, पुलिस होते तब जरुर जाते अभी तो पुलिस के यहाँ हमें जाना है, चलो तेजी से आओ नहीं तो मेट्रो भी छूट जायेगी, मैंने दोस्त से कहा....शायद अंतिम मेट्रो हमारे लिए इंतजार में थी और हम मेट्रो में सवार हो गये. बस अड्डे की ओर पहुँच कर रात को बहुत भयावह दृश्य दिख रहा था दिल्ली में भी चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा था और भीड़ वही थी जो रेलवे स्टेशन की थी.......पानी बेचते हुए लोग और गोलगप्पे लगी रेड़ी की दुकाने थी . मेट्रो से बाहर निकलते ही एक युवक से मुलाक़ात हुयी...कहाँ जाना है, उसने पूछा! मैंने कहा,..कहीं नहीं? मैंने दोस्त से कहा कुछ बताना नहीं है.... सीधे चलते जाना है....चले जा रहे थे तेजी से हम और वह युवक हमारे पीछे- पीछे चला आ रहा था ...............................आगे कहानी और भी है. शेष अगली बार. साभार- प्रभात “कृष्ण”   

गुजारा हो नहीं सकता

       एक गीत वहां भी है जब “गाड़ियों के हॉर्न” सुनते हुए बच्चा रो रहा होता है. जब गुजरा था एक बार उस फूटपाथ से तो लगा कि अजीब दुनिया में मैं आ गया हूँ...किन्तु जो बच्चा फूटपाथ पर बिछी काली चादर में पैदा होने के बाद नाली के काले गंदे पानी से पहली बार स्नान कर रहा था तो वह शायद जीवन भर इसी में स्नान करते हुए अपनी कहानी लिख जाए. उस बच्चे को क्या पता कि दुनिया इतनी भी खराब होती है. गरीबी का यह आलम देखते हुए मन पसीज गया, बहुत सोंचा कोई उपयुक्त कविता लिख सकूँ हिम्मत हार गया....बस मन के भाव थोड़े से बच कर प्रश्न पूछते है अपने आप से.....पूछ भी सकते थे अपनी मां से परन्तु माँ की स्थिति तो उस नंगे बच्चे से भी बदतर है क्योंकि माँ “माँ” है और वह तो खुद बच्चा जो कि निर्वस्त्र खेल सकता है..............................  

मेरे अपनों की महफ़िल में गुजारा हो नहीं सकता
किसी गैर के चरणों में सहारा हो नहीं सकता  
मेरी किस्मत में है, जो लेटा हूँ फुटपाथ पर
गोंद में लिपटा हूँ,  इक मां के दुलार पर
मेरे जन्म के गीत रेड लाईट की शोर सुनाती है
सडकों पर चलते वाहन, रोते कोई सुन नहीं सकता
मेरे अपनों की मेहनत से गुजारा हो नहीं सकता ...............

साभार
प्रभात

(पूसा के फूटपाथ पर दिखी एक गरीब झलक)

Tuesday 2 August 2016

दर्पण

दर्पण
 from -google
हाँ जिसमें दिखता हूँ खूबसूरत मैं
मुझे वही दर्पण पसंद है.... 
शर्त हैं उस आईने की,
कि मुझे अहसास दे 
सुन्दर भावों की,
मधुर स्वभावों की,
सरल विचारों की
जिससे प्रकट हो सके 
एक पूर्ण मुस्कान मेरे चहरे पर
मुझे वही चेहरा पसंद है 
हाँ जिसमें दिखता हूँ खूबसूरत मैं 
मुझे वही दर्पण पसंद है....
पर चाहता तो हूँ 
कभी कभी मुझे दिखाना 
उस हकीकत को 
जिसमें मैं होता हूँ
वास्तविकता के करीब, 
रंग व बनावट के पास,
झुर्रियों के नजदीक, 
निर्बल काया के समीप,
देख सकूँ गुण और अवगुण अपने 
और बदल सकूँ खुद को 
क्योंकि बिखेरना चाहता हूँ 
तुम्हारे लबों पर भी मुस्कराहट 
कहता हूँ इसलिए ही तो 
मुझे वही दर्पण पसंद है.... 
हाँ जिसमें दिखता हूँ खूबसूरत मैं 
मुझे वही दर्पण पसंद है.... 
-प्रभात 
(राष्ट्रीय समाचार पत्र (हमारा मेट्रो) में प्रकाशित रचना)