Friday 30 December 2016

क्यों लिखते हो

क्यों लिखते हो ?
गूगल आभार 

किसी नदी, तालाब और कुएं को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
अपरिचित या किसी जुदा साथी को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
सागर, आकाश या फिर रहस्य को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
किसी गड्ढे को, किसी हार को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
किसी अनकही बातें, यादें और संघर्ष को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
मृत्यु, संस्कार और व्यथा को
लिखना है तो मुझे लिखो

क्यों लिखते हो ?
किसी और के दुःख, प्रताड़ना को
लिखना है तो मुझे लिखो

सच बताऊँ !!!
लिखा ही उसे जाना चाहिए

जो रहस्य हो, अज्ञात हो
जिसे जानने की इच्छा हो
जिससे आत्मविश्वास मिलता हो
जिससे मन को खुशी मिलती हो

जो अकेला हो, 
जो कुछ कह न पाया हो
जो मेरी यादों में समाया हो
जिससे मेरी प्यास बुझ जाती हो

जिसमें मैं खो जाता हूँ 
चौराहों पर, सूनसान सड़क पर
और यहाँ तक कि
तुम्हारे सामने भी
इसलिए लिखता हूँ !!!
-प्रभात



तुम्ही क्यों

तुम्ही क्यों
गूगल साभार 

एक एक करके सब
दोषी मुझे ठहराते गए
पहचानना तो
कौन चाहता है
मुझे....
वक्त का तकाजा है
एक दिन आएगा वह भी
जब आओगे और कहोगे
कि गलती हुयी।
रो देना शायद कम हो जाये
तुम्हारी मुसीबत ।
हम तो उदास होते है
रो भी लेते है अकेले
और राह देखते है
कि पहचानने का वक्त
कब आएगा...शायद
तब भी मुझे ही 
सबसे ज्यादा पछताना पड़े
प्यार की छटपटाहट में, 
चाहकर लौटा न पाने के लिए
बीता हुआ वक्त ....।।

-प्रभात 

बुजुर्ग और बारात

जब घर में शादी थी और बैंड बाजे के साथ दूल्हा चल रहा था, तो उसके दादा जी कमरे में बंद होकर पानी पीने को तरस रहे थे। घर के किवाड़ बंद थे बस एक कमरा खुला था, जिसमे दादाजी का एक फटा तौलिया बिछा हुआ था। न टाटपट्टी थी न ही कोई खाट। बस बिखरा बिखरा सा था पूरा सामान। उदासी थी। तड़प थी की चुपके से शादी का खाना तो मिल जायेगा। पर अफ़सोस कि खाने के बाद सौंच जाने वाला दरवाजा भी बंद था। किसी बच्चे ने नहीं सोंचा था कि दादाजी को ज़रूरत होगी सौंच जाने की। लेकिन बहु ने शायद सोंच लिया था सौंच खाना गन्दा हो जायेगा और फिर ये भी बात सही थी भूखा रहने के बाद कहाँ जरूरत पड़ेगी ही। सच सोंचा था शायद ।
गूगल साभार 
सीढ़ियों पर खड़ा एक 6 साल का बच्चा और उसका 20 साल का दोस्त बारात जाने के लिए उतावले थे। बस अंतिम गाड़ी बची थी, जिसे कुछ किरायेदारों को लेकर जाने के लिए थी। जो मकान मालिके के ऊपर तल्ले पर रहा करते थे। 6 साल का बच्चा और उसका दोस्त भी उन्हीं किरायेदारों में से एक थे। अचानक दादा जी ऊपर आते है सीढ़ियों पर ....20 साल का दोस्त लड़का अपने छोटे 6 साल के दोस्त की ओर इशारा करते हुए दादा जी से कह रहा था कि ये भी बारात जा रहा है। ठण्ड में फटी बनियान पहने दादा जी जोर की गालियां देते हुए उस बच्चे को 3 लप्पड़ जड़ देते है। बच्चा भी समझ नहीं पाता रोने लगता है। उसका दोस्त शायद दादा जी की छुब्धता को समझने का प्रयास कर रहा था।
जब 20 साल का वह लड़का छोटे दोस्त के साथ सीढ़ियों से उतरने लगता है तो उससे हाथ जोड़कर दादाजी कह रहे थे नीचे बोल देना भईया कुछ खाना दे दे। कांपते हाथ ठण्ड में शायद बुजुर्गी बयां करते हुए उसके वास्तविक जीवन और उनके पारिवारिक रिश्तों को ख़ूबसूरती से बयां कर रहे थे। सोंचते हुए कि अब क्या करें और किससे बोले कि दादा जी को खाने का कुछ दे दे...बोलता है ..ठीक है दादाजी अभी मिल जाएगा। 20 साल का लड़का अपने दोस्त को तेजी से दादाजी से बचाकर उसे लेकर बारात के लिए जाने वाली गाड़ी में बैठ लेता है...और शादी के स्थल पर अब सभी पहुँच कर डीजे पर डांस करने लगते है।।।
प्रभात


Monday 12 December 2016

दादी जी

लगता है, अभी दादी हैं। घर जाता हूँ तो लगता है हँसते हुए बोल देंगी 'बाबू'..आई गया..पनिया ले आयी...सच कहूं तो ऐसा कभी नहीं रहा होगा जो मुझसे बताती न रही हो दुःख सुख या किसी की कोई बात बेफिक्र। मैं समझाता तो अगर उन्हें समझ नहीं आता तो बिना कुछ बोले हंस देती। बहुत बार जब मेरे चेहरे को कोई घर का सदस्य न पढ़ पाता तो अक्सर वो बोल देती 'काव बात बाय'..पढ़त पढ़त मुरझाई गया..'आज काहे चिंता में हया' फिर मेरी और दादी का संवाद शायद बहुत ही अच्छा संवाद हुआ करता था।
दादी जी पढ़ने को शायद पहली क्लास भी नहीं पढ़ी थी। लेकिन ज्ञान का असीम भण्डार शायद मुझे अलग तरीके से प्राप्त हुआ। दादा जी और दादी जी में फर्क बहुत बड़ा था लेकिन कभी लगता नहीं था कि कोई फर्क है क्योंकि दादा जी और दादी जी दोनों से मिलकर ही मेरा बचपन मुझसे बचपन के तरीके से जिया गया। दादा जी थे तो कृषि अध्यापक और साथ ही उर्दू और अंग्रेजी के विद्वान। पशुओं से प्रेम करने वाले। इसलिए घर में किसी चीज की कभी कमी न रही। दादा जी और दादी जी के बिना मेरी जिंदगी का हाल क्या ही होता।
एक सुबह नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अपने बीमार भाई को एक ट्रेन में बिठाने के लिए गया वह तारिख था दिसंबर का पहले हफ्ते का ही...जब पिछले साल दिसंबर में मुझे जानकारी मिली कि दादी जी बीमार है... फोन पर बताया गया कि दादी जी बीमार है लेकिन वह ठीक हो रही है ऐसा संकेत मिला...मैंने मन ही मन दुःख हुआ। अलग जाकर दूर आँखों में आंसू भी आये और पता नहीं क्यों मन ही मन भगवान् से विनती भी किया की दादी जी पूर्ण रूप से ठीक हो जाये। बस दादी जी को कुछ नहीं होना चाहिए। मेरी जिंदगी ले लीजिए भले ही लेकिन मेरी दादी जी को ठीक रखिये।शायद ऐसे ही भगवान को बहलाने का प्रयास करता रहता आया हूँ। लेकिन भगवान् न तो ठीक किये...उलटे ही दिनाक 10 को पता चला कि दादी जी नहीं रही...क्या???विश्वास तो नहीं हुआ लगा कि किसी को ऐसे कैसे पता लगा कि दादी नहीं रही।
पिताजी भी नहीं जान पाए होंगे। होंगे डॉक्टर बहुत बड़े अपने आप को समझने वाले। लेकिन दादी जी के साथ ऐसा हो ही नहीं सकता...शायद सुना था कि अक्सर कभी कभी साँसे लौट आया करती है। मैं भी चमत्कार और श्रद्धा से परिपूर्ण उसी की प्रतीक्षा में था कि मुझे मेरी दादी से मुलाकात हो जाये। मैं शताब्दी में बिना टिकट चलकर किसी तरीके से लखनऊ पहुंचा और फिर लखनऊ से घर बिना दिन पर कुछ खाये पीए....उस दिन की कहानी ध्यान आती है तो लगता है यात्रा वृत्तांत ही लिखना ठीक होगा। परंतु अगर बात करे घर पहुँचने को लेकर सभी लोग पिताजी, अम्मी, दीदी, भाई सब के सब बिना रोये अपना सभी काम सामान्य रूप से कर रहे थे। जब मैं पहुँचा शाम को तो दादी जी को लेटे हुए रजाई में देखा...अब तो मैं भी असामान्य से सामान्य हो चुका था।
पता नहीं क्यों लगा ही नहीं दादी जी नहीं रही। शायद वो थी तो भी हंसाती थी और नहीं है तो भी हंसाती है। रुलाया भी तो उनकी यादों ने कभी कभार...पर अहसास नहीं होने दिया कि अब वो हमारे बीच नहीं है इसलिए आज के दिन के दादी जी के स्वर्गवास का दिन भी याद नहीं रहा । लौटते हुए दीदी का फेसबुक पोस्ट पढ़कर लगा कि हाँ शायद सही कह रही होंगी। दोस्त से कहाँ कि दादी जी के बारे में लिखा गया है....मुझे तो याद ही नहीं रहा कि आज के ही दिनाँक 10 दिसंबर, 2015 को वो अलविदा कह गयी। शायद ऐसा इसलिए ही हुआ क्योंकि दादी जी हर पल साथ दिखती है....

प्यारी दादी जी अब आपको याद कर रहा हूँ....मेरे भविष्य अर्थात नौकरी, शादी की बड़ी चिंता थी आपको वह चिंता अब भी होगी तो निकाल दीजियेगा...देखिएगा आप मुझे मेरे भविष्य को चाहे दूर आसमान से ही क्यों न.



महके न धरती तब बरसात कराओ न

महके न धरती तब बरसात कराओ न
सौंधी सौंधी मिट्टी से मन को खूब रिझाओ न
मन की अभिलाषा है बस हरा भरा संसार रहे
गूगल से साभार 
चिड़ियां चहके, चमके तारे झिलमिल ये संसार रहे
सूनी हो बगिया तो कोयल कोई आओ न
सोते हुए गहन निद्रा से सुबह सुबह जगाओ न....

सूना सूना संसार हुआ है, अंधा तो प्यार हुआ है
मतलबी इंसान हुआ है, रिश्तों में व्यापार हुआ है
लोरी न माँ की तो तुम, अब आकर गले लगाओ न
तपते देह का आंसू लेकर पोखरा नया बनाओ न
महके न धरती तब बरसात कराओ न.....
 -प्रभात

Thursday 1 December 2016

प्यार

बिना शब्दों के प्यार हो जाता है !!!

अच्छी बात नहीं लगी न
पर क्या ऐसा नहीं होता?
गूंगा प्यार नहीं करता?
गूगल साभार 

बिना सुने कोई बहरा कैसे सुन लेता है
अपनी प्रेमिका की बातें...
कैसे प्यार करता है
अपनी पत्नी से अपने बच्चों से भी
बिना संवाद के तो
प्यार के वशी भूत मोर
अपनी संगिनी का दिल
मोह लिया करते है
लेकिन प्यार के लिए,
होती तो है न एक भाषा
वह जरूरी नहीं कि बातों से हो
तभी तो हो जाता है
अंतरक्षेत्रीय, अंतरराज्जीय, अंतर्देशीय प्यार
और प्यार वहां भी हो जाता है
जहाँ कोई चेहरा नहीं होता
केवल विश्वास होता है
 केवल काल्पनिक दुनिया का प्यार
 इसलिए ही शायद जरूरी नहीं,
प्यार में तीन शब्द आयी, लव, यू
तीन अक्षर से बना शब्द प्यार
 और जरूरी नही कुछ कहना
 हाँ करना जरूरी है इजहार ...
उसके लिए भाव ही काफी है..

 -प्रभात

Monday 14 November 2016

क्या तुम भी वही देख रहे?



-गूगल से साभार 
क्या तुम भी वही देख रहे? 
जो मैं देख रहा हूँ..

लम्बी कतार में खड़ा
रात भर जगता आदमी,
उसके घर में आटे, दाल का
खाली डिब्बा देख रहा हूँ...
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

पत्नी के डोलची का
पुराना डंडा लगा ढक्कन
अंदर छुपा 500 का नोट
निकलता देख रहा हूँ..
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

बेटी के शादी का मूहर्त
और पिता के बैंक के चक्कर
में भुना खाली 2000 रूपये
मिलता देख रहा हूँ..
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

लाश उठाये पिता की
कफ़न के लिए बेटे की
100 रूपये की तड़प में
विवश चेहरा देख रहा हूँ...
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

छोटी बच्ची की जिद
टॉफी पाने के लिए 
रोती हुई रात भर प्यासी
अन्धेरे में जगता देख रहा हूँ..
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

कई कार्ड लिए हाथों में
ए टी एम की ओर फिरते
बूढ़े, बच्चे, नौजवान 
सबको हताश देख रहा हूँ....
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।

रातों रात नमक लुटा है
हजार दिया, 800 मिला है
ढाई लाख ब्लैक मनी के बदले
1 लाख एक्सचेंज देख रहा हूँ
क्या तुम भी...?
जो मैं देख रहा हूँ।
-प्रभात




Thursday 3 November 2016

एक पत्रकार के साथ पीरा बैल और रोती गाय

नमस्कार पीरा जी और रोती जी। मैं प्रभात आपके साथ अगले 1 घंटे के लिए हूँ। आप दोनों का हमारे खेत के मचान के पास स्वागत है।
पीरा और रोती: जी प्रभात जी आपको भी नमस्कार। ; पूँछ हिलाते हुए और जीभ बाहर निकालकर नाक की और ले जाते हुए अम्मा!
प्रभात: ये अम्मा क्यों?
रोती जी: ये अम्मी की याद में अचानक ही निकल गया । मैं जब छोटी थी तो मुझे मेरे अम्मी से अलग कर दिया गया। मैं कसाई के हाथों में चली गयी थी। बड़ी मुश्किल से भाग गई एक दिन जब मुझे घुटे से जमके बाँधा गया था तो कुत्ता दोस्त ने रस्सी काट दिया और छूट के भाग गई थी, तब भी अम्मी का पता नहीं चल पाया।
प्रभात: अच्छा रोती जी आपके दोस्त पीरा जी आपको कब और कैसे मिले।
रोती जी: जब हौदी में अपने मालिक के यहाँ संगहा/भूसा खा रहा था, मेरी बूढ़ी अम्मी भी साथ में खाना खा रही थी वो दूध देती थी तो उन्हें मालिक ने आँगन में बाँधा था। और मैं जवान थी परंतु दूध नहीं देती थी बाहर बाँध रखा था। वही पीरा जी आते थे और मेरे साथ कुछ समय बिता लेते थे। जब तक पीरा जी के लिए सोंचती क़ि रूक जाए तब तक मालिक डंडा लेकर आते और पीरा जी को तब तक मारते जब तक पीरा जैसे सांड/ बैलों के संमूह में वह नहीं भाग जाता।
प्रभात: अच्छा पीरा जी आपसे एक सवाल। आप छुट्टा कब से घूमते है?
पीरा जी: मैं ये नहीं जानता पर जब से होंस संभाला, तब से ही मुझे हमारे मालिक ने नाक में नाथकर, मेरे शरीर पर कई जगह दागकर घर निकाला कर दिया गया था, क्योंकि मैं उनके किसी काम का था ही नहीं, नसबंदी होता इससे पहले ही घर परिवार छोड़कर रफूचक्कर हो गया। बाद में हम समूह में चलने लगे, पहले खेतों की ओर गए, मारे गए। भाले से अधमरा हो गया तब जाकर फुटपाथ पर शहर में घूमने आ गया। इसलिए शहर में आप से भी आज ही मुलाकात हो सकी।
प्रभात: डकारते हुए आपके साथ और जो लोग है वो दूर क्यों खड़े है?
पीरा जी: मेरे साथी दल में सभी मेरा स्वागत करने के लिए 1/2 किलोमीटर दूर खड़े है वो बता रहे है कि हम सब साथ है।
प्रभात: आप लोग क्या खाते है और कैसे दिन बीतता है?
रोती जी: हम सब पानी की खोज में बहुत दूर दूर तक चलते जाते है शहर में नाले का पानी मिल पाता है। खाने के लिए सड़ी गली खाने जैसा कुछ भी जो मिलता है वही निगलना पड़ता है। कभी- कभी प्लास्टिक भी खा लेते है।
पीरा जी: पागुल करते हुए, हाँ में हाँ मिलाते हुए। 
प्रभात: आपको खूंटे में बंधा हुआ अच्छा लगता है या छुट्टा!रोती जी: जी मुझे खूंटे में बंधा हुआ अच्छा लगता है कम से कम मालिक दूध के बहाने मुझे खिलाता पिलाता तो रहता है। यहाँ तो छुट्टा हूँ पर घूमने और खाने की स्वतंत्रता कहाँ?
पीरा जी: बहुत चोट खाना पड़ता है, जिधर जिस किसी के दरवाजे पर जाता हूँ वही दुत्कार दिया जाता हूँ। डंडे हो या भाले सब सह्वे पड़ते है। भागता तो रहता हूँ। मालिक तो मुझे खूंटे से अलग बचपन में ही कर देता है। खूंटे ही क्यों पूरे घर से अलग। घर ही क्यों पूरे परिवार से अलग।
प्रभात: तो अब आप लोग कहाँ जाने वाले है आप थके होंगे रिफ्रेशमेंट में आप लोग क्या लेना चाहेंगे।
पीरा और रोती जी दोनों एक साथ सिर ऊपर नीचे करते हुए, हंसमुख चेहरे से पत्रकार के हांथों को चूमने लगते है। मानों अब वे कह रहे हो मेरी पीड़ा को समझने और बात करने वाला ही मेरे रिफ्रेश होने के लिए काफी है। फिर भी आज जब उन्हें धुयिहर के साथ और खलिहान में हरे चारे के सामने बैठे मैंने देखा तो लगा शायद वो अपने पिछले दिनों को याद कर रहे है।
मैं उन्हें इस तरह साथ बैठा देखकर थोड़ा मुस्कुराता हूँ और दोनों हाथ जोड़कर शुक्रिया भी अदा करता हूँ।
-प्रभात



संघर्ष कब? क्यों? कैसे? ......(1)

गीता उपदेश आपने पढ़ा होगा, यह अर्जुन को भगवान् कृष्ण द्वारा दिया गया उपदेश है।
मैं कोई उपदेश नहीं देना चाहता पर संघर्ष के उन बिंदुओं को जरूर शामिल कर आपके लिए लाया हूँ जहाँ और जब मेरा उनसे सामना हुआ है। हर किसी के मन में जिस प्रकार से कुछ कहने की ललक होती है, कुछ समझने की शक्ति होती है उसी प्रकार से मेरे अंदर भी यह शक्ति विद्दमान है।
आज की जिंदगी में सभी कुछ न कुछ बनना चाहते है। जिसकी जैसी शक्ति होती है उसी प्रकार से वह अपने आप से उम्मीद करके आगे बढ़ते है। कुछ कामयाब हो जाते है और कुछ सतत परिश्रम से उस लक्ष्य को हासिल करने में भी नाकाम हो जाते है। जिलाधिकारी बनने की जिज्ञासा भारत वर्ष में आज भी उसी प्रकार से विद्दमान है जैसे पहले आजादी के बाद से ही देखी गयी थी। इस प्रकार के संघर्ष में हम जैसे लोग दिल्ली में बनवासी बने घूमते रहते है। हर कोई पॉवर और पैसे के लिए संघर्ष करता प्रतीत होता है। संघर्ष की उच्च स्थित में विमुखता, अपराधीकरण, असामाजिक होना आम बात है। बेरोजगारी की हालात में लोग क्या से क्या बन जाते है कुछ नहीं तो एक परिवार की हालत राजा से रंक की तरह हो जाती है और जो रंक होते है वो रंक से भी दयनीय स्थिति में पहुँच जाते है। हां कुछ सफल हो जाते है उनके बारे में कल्पना करने वाले लोग जलन और पागल से भी हुए जाते है, कुछ अपने और अपने लोगों को कोसते है, उलाहना देते है और उपदेश भी। लेकिन सवाल ये है कि इस संघर्ष में जो उन्हें सफल मानते है वे क्या वास्तव में सफल है? जी नहीं सफलता के जिस मायने पर आप जीते है वह जीने के लिए ठीक है पर खुद की संतुष्टि के लिए कतई नहीं।
"कुछ बनने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण एक अच्छा इंसान बनने में है।"
जिलाधिकारी या कोई भी अधिकारी बनना आसान भी है मगर अच्छा इंसान वह होगा या नहीं यह कहना मुश्किल है। यह अपने आप में अलग विचार का विषय है कि अच्छा इंसान किसे कहा जाता है।
सफलता मिल जाने पर जो हालात होते है उसे हम खुशियां कह देते है लेकिन क्या यह खुशिया सबको मिल पाती है? जरूर नहीं। फिर इस खुशियों से किन लोगों के तालुकात होते है निश्चित रूप से केवल उसी की खुशियाँ निहित होती है। परंतु मिठाईयां हम अगर सबको खिलाते है तो केवल यह मान लिया जाता है कि बहुत सारे लोग तक यह खुशियां पहुँच गयी है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। भिखारी को प्रसाद दे देते है तो उसे पता नहीं होता कि वह किस खुशी में है मगर वह खुश जरूर होता है।
त्योहारों का स्वरूप जो पहले था वह कैसा था और आज कैसा ? इस विषय से हम पूरी तरह अवगत भी है। किसी भी बहुत बड़े संघर्ष का परिणाम हमारे त्यौहार है। जिसे हम सदियों से मनाते चले आ रहे है। संघर्ष मनुष्य की एक आवश्यकता है और इस संघर्ष में किसी का अंत और अंत की खुशी एक परिणाम के रूप में उभर कर सामने आता है। हमारी खुशियां आज बहुत से त्योहारों पर क्या वही है जो होना चाहिए? नहीं बिलकुल नहीं , आज होली के दिन भांग पीने की तुलना भगवान् शिव के भांग पीने से कर लेना आम बात है। सड़कों पर लड़खड़ाते हुए गालियां देना और अश्लील हरकतें करना बुराई पर अच्छाई की जीत बताना हो गया है। दिवाली पर बड़े बड़े बम छोड़कर वृद्धों को कष्ट पहुँचाना, जीवों को सदा के लिए ऊपर पहुंचा देना और आस पास के पर्यावरण को बहुत हानि पहुँचाना दिवाली की परंपरा बताया जाने लगा है।
संघर्ष ही जीवन है मगर इस संघर्ष में नए त्योहारों की उत्पत्ति करना हमारा मकसद होना चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है जब त्योहारों के मनाये जाने के उद्देश्यों और कारणों की तह में हम पहुँच जाए। जिस युग में त्योहारों का स्वरूप बदल जाता है वह त्यौहार एक ढोंग बन कर रह जाता है। वह संघर्ष का परिणाम के रूप में नहीं वह अपने मतलब के लिए मनाया जाता है। अगर आप और हम चाहे तो सैकड़ों बुराईयां है किसी भी बुराई को दूरकर हम नए त्यौहारों के रूप में उसे आगे ला ही सकते है। यदि हम आज के त्योहारों को इसके पुराने स्वरूप में नहीं ला सकते है तो उसके विरुद्ध आवाज तो उठा ही सकते है। लेकिन कहना जितना आसान है, करना बहुत ही मुश्किल है, संघर्ष करना होगा अपने आप से और अपने लोगों से । खासकर विचारों से संघर्ष कभी आधुनिक वैलेंटाइन के तो कभी आधुनिक करवाचौथ के।
शेष अगले अंक में..
धन्यवाद।


Saturday 22 October 2016

सूरज ढलते-ढलते वो भी चली गयी

      कितने बरस हो गए जब भी सोंचा कि तुम मिलोगी, मिलती ही रही हो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में। आज भी वही सोंचा कि तुमसे मुलाक़ात जरूर होगी। राह वही थी तुम तक जाने वाली। चलते -चलते रुक रुक जाता था। कितनी बार किसी लड़की को देखा तो लगा तुम ही हो। रागिनी अगर आज तुम्हारे बारे में सोंचा न होता तो शायद तुम न मिलती लेकिन ये मेरा प्यार ही है जो तुम्हे मिला ही देता है। यूँ तो सूरज ढलने के बाद शायद मुझे तुम्हारी तरह ही किसी चेहरे का दिखाई देना असंभव हो जाता है। परंतु तुम्हारा चेहरा मेरे सामने से कैसे हट सकता है। मेरी डायरी को भी तुम्हारे मुलाकातों के लिए बहुत लंबे वक्त से इन्तजार था। सामने से जब तुम आयी तो बहुत जल्दी ही पिछली बार की तरह अंदेखेपन से आगे बढ़ती रही, लेकिन मैं ...तुम्हे देखकर और इतने पास आकर अपने आप को संभाल न सका और वही ठहर सा गया, क़ि शायद आज कुछ बोल ही दोगी।
      रागिनी तुम्हारे एक-एक मुलाकातों की कहानियां मुझसे कही नहीं जाती। हाँ लिख रहा हूँ। नहीं चाहता कि तुम कभी आकर पढ़ना। तुम तो वैसे भी तुम हो। "हम" तो हम ही कह सकते है क्योंकि हम को लेकर चलना मेरे लिए आसान है मैं अभी मैं हूँ और लड़का भी। इसलिए और तुम न आजकल बड़ी-बड़ी बातें भी करने लगी हो। मैं जब सोंच रहा था कि तुमसे मुलाकात अगर हुयी तो मैं हाथ नहीं मिलाऊँगा। इसलिए नहीं कि मुझे किसी चीज़ का अहंकार था। इसलिए क्योंकि मेरी रागिनी...रागिनी है बस। मेरी हटाने के लिए बहुत पहले सन्देश चलकर आ गया था। अरे रागिनी फिर जब तुमने हाथ बढ़ाया तो मेरी दृष्टि तुम्हारे लिए वही वास्तविक सी लगी और उसी गिरफ्त में आकर मैंने भी अपना हाथ तुम्हारी तरफ बढ़ा ही दिया। सच बताऊं मत पूछना अब कि तुम घड़ियाली आंसू भी बहाती होगी कभी।मुझे पता है सब झूठ है। लेकिन मत सोंचना कि कभी मैं ऐसे सोंचता भी हूँ। तुमने जो पुछा आज शायद मैं पूरे आत्मविश्वास से सटीक जवाब देने की कोशिश किया था। पर उम्मीदें तुम पर जो थी वो कभी पूरी नहीं कर सकी, कहाँ सोंच सकता हूँ कि कभी खुद पहल करोगी। कभी खुद मिलोगी। कभी खुद रुक कर वही नाम लेकर पुकारोगी। कभी खुद से कुछ समय बैठने के लिए कहोगी।
      नहीं कहोगी, नहीं रुकोगी, नहीं सुनोगी, केवल यही चाहोगी क़ि कभी फिर मिलते है। पर मिलोगी कहाँ...चिंता मत करो मुझे केवल मिलना है मैं ढूंढ लेता हूँ तुम्हे। तुम भी गलती से कभी ढूंढते हुए मिल जाना इन्तजार रहेगा। मत पूछना क़ि तुम क्या पहनी थी। आज कैसी लग रही थी। तुम प्यार करते हो?? नहीं । तुमसे नहीं.. रागिनी! रागिनी के शरीर से नहीं बस उसकी आत्मा से। तुम चाहे कितनी भी बदसूरत लगो। तुम्हारी ख़ूबसूरती से मेरे दिल का आँगन खूबसूरत होकर रोम रोम को महका देता है। मेरे हृदय की दीवारों से तुम्हारी आवाज कानों से कभी बाहर ही नहीं जा पाती। और फिर भी तुम रागिनी क्या मेरे लिए कभी बदलोगी नहीं। वैसे ही रहोगी। जैसे मैं चाहता हूँ तुम नहीं। चलो अच्छा हुआ...अगली प्रत्यक्ष मुलाकात में अब शायद जिंदगी बहुत बदली हुई मिलेगी...हाँ अब हमारी मतलब मेरी और तुम्हारी भी।
-प्रभात


Wednesday 19 October 2016

अब प्यार नहीं करना

गूगल से साभार 
जीते जी क्यों मरना
अब प्यार नहीं करना  

बहकर भावों की धारा में,
कवि बैरागी नहीं बनना
चाहत को क्यों लिखना,
देवदास ही क्यों बनना
अब प्यार नहीं करना  

इक मूर्त बना बस पूजना,
क्यों उसे हासिल करना
दीपक की लौ के आगे,
पतंगा बन क्यों जलना
अब प्यार नहीं करना  

अजीब सी ख्वाहिश ले,
सोते -सोते क्यों जागना
और सपनों में पीछा करते,
गले फिर से क्यों मिलना
अब प्यार नहीं करना  

शब्दों को संजीदा से लेकर,
सोंचेंगे क्यों दिल से अब
बातों-बातों में लड़ना और
हँसते-हँसते क्यों रोना,
अब प्यार नहीं करना  

इश्क का प्रस्ताव ले क्यों,
लव यू मन में बोलना
हृदय की गति बदलकर,
क्यों इजहार दिल की करना
अब प्यार नहीं करना  
-प्रभात

Sunday 16 October 2016

थाम कर मेरा हाथ

थाम कर मेरा हाथ 
चलती रहोगी न
छोड़ जाओगी मुझे 
कभी क्या अकेला
नहीं। यही कहोगी
जानता हूँ 
कहती रहोगी न
मैं भटक जाऊं
चलते चलते कहीं
मुझे ढूंढ लोगी न
वर्षों न हो मुलाकात
तो मेरे आने का 
इंतज़ार करोगी न
मैं लिखता हूँ सब
प्यार की कलम से
तुम पढ़ती रहोगी न
भावों की बारिश में 
भीगकर हर वक्त
मुस्कुराती रहोगी न
थाम कर मेरा हाथ
चलती रहोगी न
-प्रभात
तस्वीर: गूगल से साभार

सैलून की ओर

    ऐसा लगता है आज मेरा प्यारा बचपन लौट आया है. मेरी माँ कटोरी में सरसों का लेपन/बुकवा लेकर लगाने के लिए आज फिर मेरे पास ही बैठी है. आँगन में उसी जगह चटायी बिछी है जहाँ पर आस-पास की क्यारियों में लगाए खूबसूरत फूलों से खुशबूं आ रही है और उनके पास मधुमक्खियाँ, तितलियाँ; मेरी माँ के दुलार के साथ आस पास खेल रही हैं. आखिर ये एहसास हो भी क्यों न! आज जो रविवार है यानि की हफ्ते भर का एक दिन सन्डे का. अभी-अभी मां के आँचल में अपना चेहरा छुपा रहा हूँ और कह रहा हूँ माँ मेरे बाल देखिये छोटे है न? लबों पर हल्की मुस्कराहट बिखेरती बता रही है- हाँ बेटा!

   गमछा ओढ़कर सैलून में बैठे हुए लोगों को देखता हूँ तो बचपन की ओर चला जाता हूँ. बूढ़े नाई अक्सर हाथ कांपते हुए मेरे बाल अब भी काट देते है शायद बूढ़े नाई ये वही है जिन्होंने मेरे पिताजी के बचपन में भी बाल काटने का काम किया करते थे. घर पर और गाँव के चौपाल पर हजामत करते अक्सर यही बूढ़े लोगों को देखता हूँ. कांपते हुए हाथ में कैची और उससे हजामत के बीच की वार्ता का आनंद वे सभी लोग अब भी वैसे ही उठाते है जो अंग्रेजी हुकूमत के समय पहले भारतीय लोग उठाया करते रहे होंगे.  सैलून नाम ही तो बदला. बचपन और नाई भी बदले. मगर मैं तो अभी वही बूढ़े नाई के पास ही बैठा उनकी बातों में मशगूल हूँ .

   कुछ वर्षों पहले की बात है दिल्ली आया ही था. हंसराज कॉलेज से निकल कर एक दिन अकेला छात्रावास की खोज में घूमते हुए माल रोड तक जा पहुंचा. शायद याद नहीं परन्तु वह सपनों का जुबिली हॉल था. शायद अब वह जुबिली हॉल जैसा मेरी आँखों के सामने है वैसा यकीन नहीं होता क्योंकि दिल्ली में आने के बाद की चकाचौध आँखे कुछ और ही दूर दृष्टि से तब जुबिली हॉल देखी  रहीं होंगी. यह छात्रावास देखते ही लगा कि राष्ट्रपति भवन यही है. मैं सिर्फ यहाँ पहुंचकर अपने आप पर गर्व महसूस कर रहा था. लौटते समय सड़क के पास ग्वायर हॉल की एक दूकान दिखी: सैलून. सैलून और फिर आगे बढ़ा तो ग्वायर हॉल. नहीं पता था कि यह भी छात्रावास है लगा कि प्राईमरी  किताबों में पढ़ा किसी अंग्रेज वायसराय का निवास स्थान होगा! सोंचा, कहीं ऐसा तो नहीं... यही भारत में व्हाईट हाउस हो. लाल दीवारों को व्हाईट कहना ज्यादा हास्यास्पद नहीं है. क्योंकि मैं वास्तविकता के सागर में खड़ा होकर अपनी बात कहने की कोशिश कर रहा हूँ.

   सैलून भी किसी ऐरे-गैरे के लिए तो होगा ही नहीं; ऐसी बातें ही दिमाग में आती थी. बिल्डिंग देखकर बड़ी-बड़ी कल्पनाएं करना आम बात है. ग्वायर हॉल के गेट पर लम्बे-लम्बे दो गार्ड मानों कह रहे थे कि इजाजत नहीं है बच्चे. दूर से सपने देखना आदत तो हो ही गयी थी. सोंचा सैलून पर अगर नाई बाल काट रहा है तो मैं भी एक दिन जरुर बाल कटवाने के लिए पूछुंगा. सपने में भी नहीं सोंच सकता था कि कभी इस ग्वायर हॉल में मुझे रहने को मिलेगा. कल्पना जरूर कर लिया था कि काश एक बार अन्दर देखने को मिल जाता तो....  ग्रेजुएशन खत्म होते ही मेरी कल्पना सार्थक हो गयी और मैंने  वास्तविकता में आकर अपने पोस्ट ग्रेजुएशन के दौरान इसी ग्वायर हॉल में दो वर्ष बिताए.

   रविवार का आज का दिन शायद मुझसे कहने लगा कि आज सो लो. मैं ऐसे सोता था जैसे पूरे सप्ताह की कसर निकाल रहा होता था.  वही आदत अब भी है. आज मीठी यादों में सुबह के नाश्ते का आनंद भी उठा रहा हूँ. वो गर्म पूड़ियाँ, जिलेबी, गर्म दूध, आलू-चने की सब्जी कितना कुछ मुझे खिलाओगे. सहसा मैंने अपने बचपन की यादों से पूछ ही लिया कितना ? वो मित्र जो मुझे सुबह नाश्ते के समय जगाने आते थे आज कहाँ चले गए? आयेंगे और फिर चले जायेंगे? मेरे पास ही रह लेते. फिर से नाश्ता करने के बाद इसी छात्रावास (गवायर हॉल) में अपने कमरे की खिड़की से धूप को निहारते और थोड़ी देर बाद बाहर गुलाब वाटिका में बैठकर धूप सेंकते. किसी कर्मचारी से अब गिला शिकवा नहीं, अब तो मैं वहां मेस सचिव भी नहीं तो क्यों किसी से मेरा वाद-विवाद होगा. फिर क्यों आज मेस के लोग सुबह - सुबह मेरा दरवाजा नहीं खटखटा रहे। यही सब सोंचते-सोंचते मैं अपनी यादों को और आगे ले जाकर नाई की दुकान तक पहुँच जाता हूँ...वही सैलून जहाँ पर... सुना है जहाँ मेरा बचपन लौट आता है. सुना है न वही सैलून जहाँ हजामत बनवाने के लिए कभी सपने में केवल सोंचा था...सुना है वही सैलून जहाँ फोटो टंगी है कि यहाँ पर उपकुलपति और वायसराय जैसे बड़े-बड़ो की हजामत बनाई गयी है....

   सैलून वही है जहाँ अपने गाँव जैसे दो आदमी पान गुटका मुंह में दांतों के बीच दबाए, चबाते हुए मुस्कुराते हुए कैची चलाते हुए नहीं थका करते है...थोड़ा थकते है तो बतियाते है बिलकुल मेरे बस्ती में जैसे लोग बतियाते है. वही स्टाईल. दीवारें पर प्रमाणपत्र और बूढ़े नाई की तस्वीर, आज के सैलून में टंगी अर्द्धनग्न तस्वीरों की जगह लिए हुए बहुत अच्छे दिखते है...वही सैलून है, जहाँ पांच से छः लोग और समाचार पत्र पढ़ते हुए देखे जाते है और गाँव से विश्व तक की सारी चर्चाएँ हो जाती है...मनोरंजन के लिए वही बी. बी. सी. वाला रेडियों, वही मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार के गाने, लता जी की आवाज ने दूर तक आज के बदलते सैलून की ओर इशारा कर ही दिया लेकिन सबसे बड़ी बात इसने मेरे बचपन का सैलून और मेरे और मां के बीच होती वह आनंदमयी बाल-चर्चा का वृत्तांत मेरे सामने ही प्रकट कर दिया जैसे सैलून में लगे आईनें घूम-घूम कर मुझे मेरा बचपन लौटा दे रहे हो. रविवार का दिन ऐसा ही खास होता है आपका भी होता ही होगा. चलिए एक नजर डालते है इसी सैलून पर...
Gwyer Hall, University of Delhi
-प्रभात

Thursday 29 September 2016

यादें गाँव की

फोटोग्राफर: प्रभात 
 "यादें गाँव की"
अपने गाँव की याद करते हुए
मैं खलिहान की ओर चला गया
लगता है वही खलिहान जो घर के पास था
दादा जी ने बनाया था 
जिसमें गेहूं लाकर रखा गया था
वही डांठ के साथ जो आया था 
एक कोस दूर से 
पतले मेड़ों के ऊपर से चलकर
गाँव की बूढ़ी औरतों के सहारे 
मजदूरी में वो गेहूं के डाँठ ही लिया करते थे
दो दिन पहले से खलिहान के पास खड़ा होता था,
फसल दवांई के लिए चौधरी साहब का थ्रेशर
पुरानी मशीन जिसे दो दिन में गाड़ा जाता था
और पट्टा चढ़ाया जाता था 
बड़ी कढ़ाई में पानी भी भरे जाते थे
खेलते हुए मैं भी पहुँचता था उसके पास
और ध्यान से देखता रहता था
सीन पसीन गर्मी में लोगों को 
देखता हुआ फूस के मकान में पहुंचा
दादा जी सुस्ता रहे थे
शायद पसीना सुखा रहे थे
अब वो जाने वाले थे गायों के 
पूरे गोल के साथ, बिना सोटे के 
कारियवा, ललकी उजरका, गोलुआ 
मरकहिया, सिधकी जैसे दर्जन गाय
प्यार से आगे- पीछे चलते थे,
दूर तलक चरते थे 
मैं भी कभी कभार जिद कर 
दूर सिवान में चला जाता था
निहारने खेतों को, फलों को देखने
गायों के साथ कूदने
बागों के बागवानी के बाद की 
हरियाली देखने गाय के झुण्ड के साथ
दादा जी के पास पेड़ के नीचे बैठ
अनर्गल बाते करता और हर बार
हँसते, डांटते गायों के साथ 
आ जाता था घर
अब लूँ के बाद का समय शाम का था
रात को दो चार ढिबरिया जल गई थी
दूध दुहने के बाद गरम कर 
पीने के लिए कहा जाता था प्यार से
टाला करता था बात, तर्क वितर्क के साथ
उनके शब्दों में प्यार के साथ बेवकूफी
नहीं पीया कभी कटोरे भर दूध
काश अब पी जाता! सोंचता रहा...
आज तो धूल का दिन है
दादा जी के साथ सोने को नहीं मिलेगा
बाबू आ जाओ! आज नहीं सुना
क्योंकि मैं घूमता हुआ फिर से वही आ गया
फीके प्रकाश में धुल- धुआं की तरह उड़ता रहा
गेहूं की बालियों की सुगंध के साथ
बाल्टी भरता थ्रेसर से निकलता अनाज
यह सब देख शीतल हवा में 
मुझसे रहा न गया
डाँठ से सींक निकालकर
पानी से भरने एक गिलास 
आँगन में नल के पास आ गया
सुरकता रहा कुछ समय पानी 
लगा बदला सा था मन का स्वाद
पानी था पर यादों की खुशबू के साथ
लगा मैं पी गया शरबत जैसा एक बार में
तब नहीं पता था जूस पीने के लिए 
प्लास्टिक पाइप भी इसी तरह की होती होगी
अब वहीं आँगन में रुक गया 
दादी के पास, तुलसी के पेड़ के नीचे 
दिख रही थी, घी के दिए जलाते हुए 
लगा मैंने उनका हाथ पकड़ लिया
क्या कहूँ अब तो मैं क्या कहूँ
अपनी यादों में खो जाऊं,
प्यार भरे बचपन में लौट जाऊँ
हाँ अब तो ये यादें नहीं होती खत्म
क्योंकि यादें तो यादें होती है
कभी न भूलने वाली बातें होती है...
प्रभात "कृष्ण"