Sunday 28 June 2015

तुम्हे मेरी खामोशी पढ़ने का तजुर्बा जब भी होगा...

तुम्हे मेरी खामोशी पढ़ने का तजुर्बा जब भी होगा!

तुम्हे मेरी खामोशी पढ़ने का तजुर्बा जब भी होगा

तो ये दुनियां मुझसे मिलने को बेताब बहुत होगी

मैं निकल चुका होऊंगा हजारों का सहारा बन कर

तब जब दुनियां बेसहारा बनकर मुझे ढूंढ रही होगी

घुमड़ते बादल के नजारे देख कर खुशी होती तो है

मालूम तुम्हे नहीं टपकने का मकसद क्या रहा होगा

जब हवाओं को बादल की ख्वाहिश का पता होगा

तो दुनियां स्वर्ग में होने का अहसास कर रही होगी

एक चिंगारी से जला रहे है बहुत ऊंचे पेड़ छोटों को  

खुद जलकर उन्हें द्वेष कहाँ मालूम चल रहा होगा

हकीकत बयां होगा जब सामने बैठ कर दोनों के

तो बचपना एक सारे जुल्मों पर भारी पड़ रहा होगा

तुम्हारा प्यार मुस्कराते हुए तब जब जताने आएगा

तब ये दुनियां मेरे न होने की वजह बता रही होगी....
-प्रभात    

Wednesday 24 June 2015

किस राह पर चल पड़ा है यार मेरे तू बता दे...

किस राह पर चल पड़ा है यार मेरे तू बता दे

टूट कर तू बिखर रहा है
-Google
या कहीं तू संभल रहा है
किस जगह पर जा रहा है यार मेरे तू बता दे
यकीं मुझे है इतना
ये पूछोगे क्यों कभी
सूरज क्यूँ ढल रहा है
दोस्त होगे तुम तभी तो
एक बार पूछोगे
क्या चल रहा है
कभी कांटो में न फंसने वाले
इधर क्यूँ जा रहा है
किस राह पर चल पड़ा है यार मेरे तू बता दे
रात दिन वहीं रुका हूँ
जहाँ से कभी चला था
लौट कर क्यों आ गया तू
बोल तेरा क्यूँ लड़खड़ा रहा है
किस राह पर चल पड़ा है यार मेरे तू बता दे
वक्त की इतनी सी बात है क्या
जिसने मुझे सचेत किया है
राग दिया है वही पुराना
जिसे मैंने पहले छोड़ रखा है
किस गली तू जा रहा है यार मेरे तू बता दे
किस राह तू चल पड़ा है यार मेरे तू बता दे  

-प्रभात 

Tuesday 23 June 2015

प्रेरणा दो और लो सभी से केवल आगे चलने की बात करो...

विशेष- अगर किसी व्यक्ति को मेरे इन शब्दों से दिक्कत होती है या मेरी ये पंक्तियाँ किसी के धर्म से जुड़े भावनाओं को आहत करती हुयी दिखाई देती है तो मैं उन सभी से क्षमा मांगता हूँ और मेरा उन सभी महानुभावों से विनम्र निवेदन है कि वे जरा भी आहत न हो ये मेरे व्यक्तिगत विचार है. मेरा किसी के व्यक्तिगत भावनाओं को नुकसान पहुँचाने का उद्देश्य नहीं है.    

ना भगवा की ना भगवान की जरुरत है बस ईमान की
ना मस्जिद की ना इमाम की जरुरत है बस कुरआन की
ना ईसाई की ना धर्म व्यवसायी की राह चलो सच्चाई की
ना गुरुद्वारा की ना तलवार की सोंच रखो बस नानक की

राह चलो अब राह चलो केवल इंसानों वाली राह चलो
सारे धर्मों के भेद समझो फिर मानव धर्म की राह चलो

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र यहाँ कर्मों से होता है बँटवारा
साथ एक टिफ़िन के खाने से पाखंडियों का हो रहा किनारा

मतलब के सारे जैन ना लिखो और बुद्ध बनों तो शुद्ध बनों
करो वही जो सही लगे अंधाधुंध पीढ़ी के संरक्षक न बनों

करो जाप माले से उन्ही की जो मुश्किल में हमसफ़र बने
रहो निर्मल खुद स्वयं सभी, बाबा केवल कुछ ज्ञानी बनें

बाँध चलो बस बाँध चलो धर्म के गूढ़ रहस्य बाँध चलो
पढ़ो धर्म फिर पढ़ाते रहो बधों नहीं प्रेम धाँगा बाधते रहो

ना भटकाव हो ना भटकावो जरुरत है सद्काम व विचार की
ना अंधविश्वास सोखा की न रटे मंत्र को केवल करो मन की
ना बंधक बन रहो ना बनाओ संघर्ष करो अपने आजादी की  
ना नफ़रत की आग लगाओ केवल जरुरत है इसे बुझाने की

प्रेरणा दो और लो सभी से केवल आगे चलने की बात करो
बात करो और प्रयास करो केवल सर्व धर्म समभावकरो 
-प्रभात 


Monday 15 June 2015

तो किसी और मौसम का इन्तजार हो रहा होता


विशेष:- मैं नकारात्मक सोंच वाला नहीं हूँ फिर भी स्थितियां नकारात्मक बातें लिखने पर मजबूर करती है परन्तु आप  सकारात्मक बनकर रहें!


तनिक सी बाधा होती तो पार मिल गया होता
मेरे सपनों में खोया यार मिल गया होता

कितना कम समय लगा इसे बाधाएं बनने में
अंतर्मन में मचे तूफ़ान की अतीव हवाएं बनने में

कोई एक दो सवाल हल अगर हो गया होता
मेरे आँखों को इंद्र का दर्शन हो गया होता

ज़रूरत है अब तुमसे मिल कर बाते करने की
तुम्हारी गोंद में छुपकर आँखे मलने की

मेरे मंजिल का रास्ता अब अगर खुल गया होता
तो रब भी मुझसे शरमा गया होता

खुशी के वजह की तलाश करने लगा हूँ
लौट कर केवल एक राह पर चलने लगा हूँ

दिन ढलते ही अगर सो गया होता
तो चांदनी रात का स्वप्न दर्शन हो गया होता

मेरे नज़र से यहाँ काली रातें ही दिख रही  
मंज़िल की ओर ले जाती हवाएं लौट जा रही

सूनापन में कोई हमसफ़र यार मिल गया होता
तो पाते मंजिल का बखान कर रहा होता

उम्र ढल रही है सूरज घर में छिपने लगा है
सुबह नाम पर से उनका ध्यान हटने लगा है

थोड़ा देर से बसंत चला गया होता
तो किसी और मौसम का इन्तजार हो रहा होता


-प्रभात 

Saturday 13 June 2015

कुछ अनकहे से.....

कुछ अनकहे से.....

किसी शून्य से चले थे अनंत तक जायेंगे
एक–एक करके न जाने कितने जुड़ते जायेंगे
गणित की तरह जोड़, घटाना, गुणा, भाग किये जायेंगे
घटेंगे भी और सांप सीढ़ी की तरह नीचे आयेंगे
परा जाना तो ऊपर ही है एक न एक दिन चले जायेंगे

कितने चाहने वालों को वो प्यार न दे पायेंगे
क्योंकि जिसे चाहेंगे उससे वो प्यार न ले पायेंगे
न किसी को बता के आये थे न किसी को बता जायेंगे
अपनी चाहत का इज़हार शायद ही किसी से कर पाएंगे
खुद को चाहेंगे तभी तो चाहत समझ पायेंगे

अँधेरे से चले थे दूर प्रकाश तक जायेंगे
कई बार लड़खड़ायेंगे और एक बार गिर जायेंगे
किसी तरह अब उठ गए तो फिर संभल जायेंगे
और कभी गिराने वाले अब मेरे साथ होते चले जायेंगे
मेरी अनुपस्थिति में वे सारा श्रेय ले जायेंगे

हकीकत की खोज में अन्तरिक्ष तक चले जायेंगे
जो रास्ते में मिलेगा सब कुछ छोड़ जायेंगे
सब कुछ गवां कर अगर सफ़र को याद करेंगे
निश्चित ही कुछ बीते पल होंगे जिन्हें चाहकर भी न पायेंगे
वरना अगर गवांना न हो कभी कुछ तो लाईनें कहा लिख पायेंगे...

-प्रभात   

Tuesday 9 June 2015

क्यों क्योंकि तुम सदाबहार हो.......

क्यों क्योंकि तुम सदाबहार हो.......  

क्यों एक पन्ना रोक देता है
मुझे आगे बढ़ने से
बस एक फूल ही तो तुम बनाई थी
इतना सुंदर नहीं परन्तु
तुम्हारी सुन्दरता छिप सी गयी है इसमें
आज पहली मुलाकात फिर हो गयी है
क्यों बिना रंगों के ये फूल अच्छे लगते है
मुझे वाटिका के फूलों से
न हंसा जा रहा है न रोया जा रहा है
बस मन से थोड़ा मुसकराया जा रहा है
तुम पन्नों को ही छूयी थी तब
मुझे लगा तुमने
पिछली बार की तरह मुझे ही छू लिया
बिना बोले कुछ बहुत दूर चली गयी
देखो ये पत्तियाँ बिना रंगों के हो गयी है
क्यों ये बेरंग सी पत्तियां
गिरी नहीं है इस सादे पन्ने से
अब तक मैं छुपा कर रखा हूँ तुम्हे
इस फूल की तरह
ताकि कहीं तुम्हारी खुशबू चली न जाये
ढूंढ़ते-ढूंढ़ते तुम्हारी याद इस पन्ने तक ले जाती है
मेरे सुन्दर पन्ने ओंस की एक बूँद लिए बैठे है
कुछ सजे से दिख रहे है कुछ
सजने बाकी है
मुझे तुम्हारे श्रृंगार उस मौसम की याद
दिलाते है
क्यों तुम मधुमास बनकर आयी और
तुम चली गयी पतझड़ बनकर   
लो बंद कर दिया मैंने अब वो डायरी
के पन्ने को
पता है तुम सदाबहार हो
परन्तु वो पुरानी पत्तियां गिरी नहीं है
क्योंकि कभी तुमने ही
मुझे संभाला था अपना समझकर   
क्यों नयी पत्तियां आयेंगी एक न एक दिन
और पुरानी पत्तियां चली जायेगी
तुम्हारी तरह एक न एक दिन
क्यों क्योंकि तुम सदाबहार हो.......  

-प्रभात 

Monday 8 June 2015

मगर मेरे हौंसले मेरे जाने के बाद की सोंच लिए बैठे है..

है राह नही आसान किसी इंसान के
मगर स्वप्न किसी पंक्षी के पर लिए बैठे है

रेतीली,  कटीली और पथरीली राहों पर
कुछ मधुमक्खियाँ फूलों का रस लिए बैठे है

अनजानी दुर्गम पहाड़ियां कभी खिसकते है
मगर मेरी सफ़र में ये नदियों में रास्ता बना बैठे है

प्यार-मुहब्बत से दूर दिनों में बस लगता है
कुछ झीलें पानी नमकीन लिए बैठे है  

विस्तार हुआ है अब तक बहुत ज़िंदगी का
मगर मेरे हौंसले मेरे जाने के बाद की सोंच लिए बैठे है ......


-प्रभात 

Saturday 6 June 2015

जो केवल एक हंसी का रिश्ता जानता है....

मुझसे जो माँगा मैंने दिया
ये सोंचकर तो नहीं कि मिलेगा
और आपने लिया ये सोंचकर
कि कभी लौटाना नहीं मुझे
कितनी बेकार है ये दुनिया मेरी
मैंने माँगा भी कुछ एक बार अगर
मुझे मिला मगर बदले में उस चीज के
जिसे मैंने भुला दिया था
और उसके साथ ही एक सच
मगर कड़वी बात, जिसे मैं जानता तो था  
कि तुम विकसित मानव ही हो और
तुम केवल कुछ देते हो नोट के बदले में
तुमसे सही है वह तुम्हारा नादान बच्चा
जो केवल एक हंसी का रिश्ता जानता है
और खुशी से कुछ मांगने पर
अपने आपको ही गोंद में रख देता है किसी गैर के.


-प्रभात 

Friday 5 June 2015

सम्मान रहा न ईमान रहा!

सम्मान रहा न ईमान रहा, बस बेचने वाला इंसान रहा
Ref. Google.com

दौलत घर की और खुदा की, बनकर केवल अभिशाप रहा

पानी के प्यासे जीवित प्राणी को, बस आंसू का अहसास रहा

हो रहे जगत में प्रतिस्पर्धा, बाहों का बाहों से दुराव रहा

न रहा प्यार किसी कोने में, बस वैलेंटाइन वाला दिन रहा

-प्रभात