Saturday 28 March 2015

आज क्या हो गया कृष्ण आपकी परिभाषाओं में.......

रो रही हैं द्रोपदी आज विश्व की भुजाओं में
गूगल से आभार 
हिमालय से लेकर कन्याकुमारी की राहों में
कृष्ण की नगरी में और राम के अवध में
छलका था तब आंसू मगर सत्य के प्यालों में
आज क्या हो गया कृष्ण आपकी परिभाषाओं में...


दिख रही थी द्रोपदी तब धर्म की निगाहों में
चौसर की बिसात और वन की आपदाओं में
केशों की सुन्दरता के लिए लहू की सीमाओं में
आज क्या हो गया अर्जुन क्यों नहीं हो विपदाओं में
आज क्या हो गया कृष्ण आपकी परिभाषाओं में...


सह रही थी तब कष्ट सीता, श्रीराम की यादों में
सो रही थी वाटिका में अपमान की छांवों में
पति प्रेम का दंड लिए अग्नि तक परीक्षाओं में
आज कैसे बचें सीता जब तब थी यातनाओं में
आज क्या हो गया कृष्ण आपकी परिभाषाओं में...
                          -"प्रभात"  

Sunday 22 March 2015

वह एक दृश्य सूर्यास्त का

वह एक दृश्य सूर्यास्त का
एकाकी हो देख रहा उन्हें सम्मुख
लगता है सब को वो जा रहा है 
किन्तु मुझे इससे विपरीत
वह दूसरा क्षिति दिखाई दे रहा है 
चित्र-गूगल से साभार 
वहां जीवन कैसा होगा?
एक सवाल है 
वो तो रंगों का सम्मिलन है,
सजीव प्रतिबिम्ब में श्रीन्गारित
परन्तु अतिशयोक्ति नहीं, सचमुच!
पर्वत, नद संगम सब प्रतीत हो रहा है 
निहारकर हुआ मैं अनुरागी 
आकाश की थाली में प्रछन्न,
मेघ जो घुमड़ता दिखाई दे रहा है
अब एक वृहत समंदर से घिरा है
मेघ संयोजन शीतल हलचलों के साथ
विशाल पर्वतों के शीर्षोंमुख
श्वेत बर्फ की चादरों में छिपा जा रहा है 
चित्र-गूगल से साभार
वहां और क्या होगा?
दूसरा सवाल है 
वह तो किसी स्वर्ग से कम न होगा 
अब सूरज, चंदा तारे आँचल में है छितिज के
लुका छिपी में रहस्य कोई जरुर रहा है 
अब नेत्र भी विवश हो गयी,  
ये समां भी बंध कर बिछुड़ रहा,
अचानक काले गगन के सम्मुख
शून्य में दीपोत्सव देखकर
अकेले ही ये मन कुछ कह रहा है 

केवल मैं ही हूँ?
यह ठहरा सवाल है 
कितुं नहीं! यह सो जाने की रात है 
आँगन में अंगड़ाई लेते बाल समूह से लेकर,
माँ और मामा तक बंधा,
संयक्त परिवार साथ दे रहा है 
चंदा मामा की रट में,
बच्चे की माँ की साथ सम्मोहित
मुसकराहट के वशीभूत होकर,
मेरा विशाल ह्रदय चलने को बाध्य हो रहा है 
और इन्तजार कर दूसरी संध्या पर
मेरा मन पहले सवाल पर आ रहा है 
-"प्रभात"



  

Monday 16 March 2015

कवि तुम भी हो कवि मैं भी हूँ

लीजिये प्रस्तुत है हिंदी से अपने लगाव पर सुन्दर गाथा-

कवि तुम भी हो कवि मैं भी हूँ
मैं कविता की पीड़ा और कविता भी हूँ

गंगा का नीर मैं हूँ
अर्जुन का तीर मैं हूँ
राधा का प्रेम मैं हूँ
मीरा सा पीर भी मैं हूँ
मैं राम का वनवास हूँ
सीता की अग्नि परीक्षा भी मैं हूँ
मैं तपती धूप और चलता समीर भी हूँ
तुम केवल तेज ज्वाला हो और मैं जला भी हूँ

झांसी रानी की गौरवगाथा हूँ
शेर ए मैसूर सा योद्धा भी हूँ
मैं गांधी वादी अहिंसा हूँ
मैं आजाद, भगत सिंह भी हूँ
विवेकानंद मैं ही हूँ
मैं तिलक और पाल भी हूँ
सरोवर में खिले तुम भी हो मैं भी हूँ
तुम तैरकर आया जलकुम्भी हो और मैं अरविन्द हूँ

हिन्दी कविता का समर्पण मैं हूँ
मैं ही उसका विश्वास और त्याग हूँ
अनन्य संस्कार मैं संस्कृति भी हूँ
मैं बचपन का कृष्ण हूँ
महाभारत की गाथा मैं हूँ
मैं ही वेद और रामायण भी हूँ
कश्मीर का सूर्योदय तो कन्याकुमारी का सूर्यास्त भी हूँ
तुम ईष्ट इण्डिया कंपनी हो और मैं हिन्दुस्तान हूँ

कबीर अमृतवाणी मैं हूँ
मैं ही अंधा सूरदास हूँ
बिहारी सतसई और रसखान भी हूँ
मैं ही तुलसीदास हूँ  
रामचंद्र शुक्ल का इतिहास भी मैं हूँ
मैं प्रेमचंद और प्रसाद भी हूँ
मैं अतीत के इतिहास से लेकर वर्तमान का यार हूँ
तुम केवल अन्धकार हो और मैं भविष्य का प्रभात हूँ 

-"प्रभात"        

  

Friday 13 March 2015

मंजिल

कोई पतवार तुम्हे पहुंचा रही है मंजिल
क्यों काट रहे हो उसे, पहुंचकर मंजिल

उड़ रहे हो कहीं पर, जब है पास मंजिल
कभी तो दूर होगी, तुमसे तुम्हारी मंजिल

अभिमान पर भरोसा है जबसे है मंजिल
चौराहे पर ठहरी होगी, कभी तो मंजिल

खुशी हुयी हमें भी, मिली जबसे मंजिल
अहंकार ले गया तुमसे तुम्हारी मंजिल

सो रहे हो फिर भी संरक्षण दे रही मंजिल
जागो वरना अदृश्य हो जायेगी मंजिल

                                           
                   -"प्रभात" 

Sunday 8 March 2015

बुझते दिए में बाती वही, पर तेल नया भरना होगा।

मैंने कुछ नया नहीं लिखा  बस सोचा आजकल की घटनाओं का परिचय आपसे थोड़ा नयें तरीके से कराऊँ इन समस्याओं से निजात पाने के लिए आपमें जिस चीज की कमी हो उसे पूरा कर दूँ  इसी उम्मीद से मैं अपने द्वारा लिखी कुछ पंक्तिया यहाँ आपको तहे दिल से समर्पित करता हूँ ।

होकर निडर, काम लगन से फिर वही करना होगा
बुझते दिए में बाती वही, पर तेल नया भरना होगा


राग किसी का मत लेना स्वयं सुर नया बना लेना
भूली-बिसरी राहों पर ज्ञान के प्रकाश जला लेना
होकर आत्मनिर्भर तुम्हें ही सीढ़ी चढ़ना होगा
प्रतियोगिता के दौर में नवाचार ही करना होगा

लोकतंत्र की नैया पर कितने भी लोग सवार रहे
विपरीत दिशाओं वालों की एक ही दुआर रहे
सत्य-असत्य का परख तो तुम्हे ही करना होगा
लेकर नाव किसी को पहले आगे बढ़ना होगा

जिस गाँव में सूनापन हो, आवाज लगा देना
अंधेर नगरी में चीत्कार से सभी को जगा देना
बन कर मंजिल स्वयं कहीं आना होगा
आगे कदम बढ़ाकर पीछे न हटना होगा     

संस्कृति धरोहर कोई किसी से अनजाने नहीं
व्यक्ति की भाषा शैली पर ये सब बंटते नहीं
परख - परख कर जवाब हमें देना होगा
अन्याय की जीत पर भी न्याय लेना होगा

हार से उम्मीद को कहीं पर विचलित न होने दें
तृण-भूमि पर भी कोई फसल नया, चाहे होने दें
नाम अपना तो जीवन भर महकाना होगा   
तराश कर पत्थर से ही मूरत बनाना होगा

                                                     -"प्रभात" 




Friday 6 March 2015

मुक्तक

मैं तुम्हे भूलता हूँ तभी तो याद करता हूँ 
तुम्हारी तन्हाई में कभी तो याद करता हूँ 
मैं साथ रहूँ या न रहूँ 
मगर हम रहें ये अरदास करता हूँ!
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तुम खीझ गए हो 
तुम रूठ गए हो 
तुम भूल गए हो 
तुम मुझसे कहते हो 
क्यों? 'तुम' ये सब करना भूल गए हो!

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होली पर शुभकामनाएं!

फाल्गुन मास और वसंत की सुन्दर बेला
रंगीन  नैसर्गिक जीवन के साथ   
इस रंगीन त्योहार का सुन्दर मिलन
मोहित मन अरुणोदय को देखता
पुष्प के सुन्दर फूलों के साथ
खिलखिलाकर कुछ कहने की अभिलाषा में
प्रकाशमान नभ की ओर एकटक देखने का हुआ
मानों प्रभात की अनुपम दृश्य के साथ
प्रभात की एकटक निगाहें शरमा गयी
बाल क्रीड़ा करते तबस्सुम की इत्र
मेरे रूह को निस्संदेह खुशबू दे गयी
ब्रज की होली सा सुन्दर अहसास के साथ
साभूषण राधा की पिचकारी से रंगे प्यारे मोहन
मेरे आँगन में किलकारिया ले रहे
मोहन की हास और क्रोध का मिलन हुआ
रंगों से डूबी बाल्टी नन्हे बछड़े को रंग गयी
गऊ परिवार होरी की खुशियों के संग
प्रभाकर की छिति की ओर गंभीरता से   
अचरज का अनुपम उदाहरण हमें सौंप गयीं    
मानों अब हो रहा दिवाकर का परिहास
विश्राम की मुद्रा में आकाश की बाहों में
रंगी हर तरफ दुनिया की परछाई में
राधा सौप रही सुन्दर गुझिया सा व्यंजन
यूँ तेजहीन प्रकाश की ओट में मोहन
की प्यारी बांसुरी की गूँज और
ब्रज सा विस्तार लिए गाँव के नगाड़े संग
नर और नारियों का मनोहर नृत्य हुआ
होली की इस विशुद्ध सुअवसर में
तसव्वुर की अंतर्मन की उड़ान सभी को
होली पर शुभकामनाएं देने संग चल पड़ा
बहुत सारी प्यार की रस्मों को रंग मिलाता हुआ  
                                                                                     

-प्रभात  

Thursday 5 March 2015

मेरा विचार..

किसी प्रकार की अभिव्यक्ति (फिल्म या डाकुमेंट्री) पर रोक लगाने का मतलब उसे प्रसिद्ध हो जाना समझ लिया जाये तो बेहतर है यह तो पता है कि ज्यादा दिन तक कानून के लूपहोल्स की वजह से बैन नहीं लगाया जा सकता. बैन तो आज तक भारत में किसी की अभिव्यक्ति पर नहीं लग सका है हाँ लगा है वो संस्थागत ऑफिसियली. पर हमें ये भी मालूम होना चाहिए कि जब इस तरीके के बैन लगते है तो उसे देखने की होड़ लग जाती है. कुछ भी हो किसे नहीं मालूम कि गांधी के साथ गोडसे को भी इतिहास के पन्ने पर पढ़ लिया जाता है भले ही वह गलत था. बिना गोडसे का नाम लिए गांधी के हत्या के बारे में पढने की जिज्ञासा कौन कर सकेगा. 


अपराधी के विचार अगर सही होते तो वह अपराध ही क्यों करता. वैसे भी फिल्म में केवल सब कुछ ठीक ही हो तो वह कहानी कैसे आगे बढ़ेगी. इस भारत में सच्चाईयां छुपाकर आगे बढ़ने की बजाय उसे धरातल पर लाना उचित होगा. यह भारत इसी के लिए जाना जाता है. जब समस्याएं है तो उसे मात्र इस कि संज्ञा देना की देशहित का सवाल है तो यह कैसा देश जहाँ हम सवालों के घेरे में आने से अपने देश को बचा रहे है. देश की प्रगति तानाशाही रवैये से नहीं हो सकती. पता है "रेपिस्ट मुकेश" के नाम से हमारे मन में बदले की भावना जाग उठती है पर यहाँ अगर हम भी हत्यारा बन जाएँ तो क्या ये सही है? लाखों मुकेश ऐसे भी है जिनको सैलूट किया जा सकता है. रेप एक आम बात बन गयी है इससे इनकार नहीं किया जा सकता हमें अपने बहनों और बेटियों को क्या केवल सुरक्षा देकर और उन्हें परदे से पीछे रखकर हैंडीकैप बना देना चाहिए? मानसिकता बदलनी होगी हम जैसे युवाओं को इसके लिए सबसे पहले आगे आना होगा. सवाल बहुत से है जवाब की तलाश में दिन भर किसी न किसी का ब्लॉग पढ़ लेता हूँ कुछ लोगों के तर्क वितर्क करने की क्षमता का अहसास और आकलन करता हूँ. बस मन में उमड़ रहे भाव कहीं से मेल खा जाते है उसी प्रकार आज के हिन्दू समाचार पत्र का एडिटोरियल पेज पढने को मिला. इस प्रकार यहाँ लिखने का साहस जुटा पाया. काफी संवेदनशील मामला है. 

साभार- प्रभात

वही गौरैया याद आती है!

विश्व गौरैया दिवस आने वाले २० मार्च को है  परन्तु मैं आज यह पोस्ट कर रहा हूँ  ये पंक्तियाँ तब लिखा जब मैं पिछले कुछ दिनों के पहले घर गया हुआ था और अचानक मुझे कुछ चिड़ियों की आवाजें सुनायी दी  समय बदलते देर नहीं लगता  बदलते परिवेश में न जाने कितने पक्षी विलुप्तता के इस कगार पर पहुँच चुके है जिनके लिए सरकारी उपाय केवल कागज की फाईलों में सिमट कर रह गए है  मुझे गौरैया की आवाज आज भी सुनायी देती है  लेकिन अपने आने वाली पीढ़ी को गौरैया का फोटो दिखाना ही शायद संभव हो, उन्हें आवाजें क्या फोटो में ढूँढना मुश्किल होगा!
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वही गौरैया याद आती है
जिसके अंडे को
हाथ लगाकर देखा था कभी 
बरामदे के मुक्के* में रोज झांकता
यह बड़ी कब होगी
हम भाई-बहन यही सोंचते
अब तब कौन कब साथ रहा
चंद दिनों बाद सुन्दर सी गौरैया
अपने पंखो के साथ आती है
जिसके बचपन को
खूब पास से निहारा था कभी 
वह साथ में माँ के साथ
होती है
उसकी माँ उसे
उड़ाने का
निरंतर अभ्यास कराती है
माँ के साथ गिरती हुयी नन्ही गौरैया
खेलती है
वही गौरैया याद आती है
जिसको दानें चुगते देखा था कभी 
मानों वह प्यार अब न रहा
गौरैया न रहा
अब केवल सन्नाटे के साथ
एक कागज पर लिखा
मेरा यह भाव सिमट कर
सवाल के रूप में जा पहुंचा
पास बैठी दादी जी के पास
सूरज ढल रहा है
बस चिड़ियों की आवाजें आती हैं
गौरैया के होने का केवल
अहसास करता हूँ अभी 
दादी, ये आवाज किसकी है
धुनियाईन, कीड़े खाने वाली
जवाब सुनकर जिज्ञासा से
एक सवाल और
क्या गौरैया नहीं रहा
नहीं, अब नहीं आती है
जिसको उड़ते हुए
बरामदे में देखा था कभी 

*मुक्के- इसका अभिप्राय बरामदें की दीवाल के ईंटों के बीच के उस जगह से है जो जगह दीवाल के प्लास्टर होने से पहले छूटी रहती है. ये जगह एक ईट की हो सकती है जिसमें बॉस लगा कर उसके ऊपर खड़ा होकर ऊपर के दीवाल के भाग की जुड़ाई करते हैं!
                               
                                                                                                                  -“प्रभात”