Wednesday 31 December 2014

जीवन के सत्य की ओर..............(समसामयिक भाग-१)

 जीवन के सत्य की ओर..............(समसामयिक भाग-१)
    मैं कोई साधु-संयासी, दर्शनशास्त्री नहीं हूं फिर भी मन में जगे भाव को यहाँ शब्दों में कहने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं न तो सगुण हूँ न ही निर्गुण परन्तु एक मनुष्य परिवार के होने के नाते कुछ मन के भाव को इस लेख के माध्यम से आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूँ चिन्तन करना हर मनुष्य का काम है इसलिए चिन्तन करना और उसी के माध्यम से अपने जीवन के पलों का एक निश्चित समय में पुर्नविलोकन करने का काम मैं भी करता रहता हूँ


     यह संसार एक घर की तरह है, और घर तो अनेकों है जिसे हमने बनाया बस अंतर इतना है घर हमने बनाया और संसार किसी और ने बनाया, जो हमारे समझ से परे है देवी-देवता शब्द हमने बनाया है सत्य को पता करने की जिन-जिन लोगों ने कोशिश की वे इसकी परिधि में अंततः आ ही गए
     मनुष्य जब पृथ्वी पर आता है तो जाने, अनजाने दो तरह से आ जाता है यह जाने, अनजाने का मतलब एक दुर्घटनावश और दूसरा जान बुझकर दुर्घटनावश आना मनुष्य का कितना जरुरी है, ये हम सभी जानते है दुर्घटनाएं होना भी शुभ और अशुभ दोनों का संकेत है बस अंतर उस बात का हो जाता है, कि हम उसे किस समय और किस सोंच से आत्मसात कर रहे हैंजानकर पृथ्वी पर लाने का काम मनुष्य ही कर सकता है बजाय किसी प्राकृतिक इच्छा के, जो की दुर्घटनावश हो जाया करती है इतना तो विज्ञान ने हमें समझा ही दिया है, कि किस बात का प्रयोग कैसे करना हमारे हित में है
     मनुष्य शुरू में भगवान के समीप अपने आपको पाता है, और समय बीतते जाने पर अर्थात खुद की बुद्धि आ जाने पर वह भगवान के समीप होने की बजाय अपने आपको विज्ञान के समीप लाता है जैसे-जैसे और समय बीतता है अर्थात अगर हम मनुष्य की आयु की बात करे तो जब वृद्धावस्था की बात करें  या फिर इस संपूर्ण पृथ्वी की आयु की बात करे, ऐसे समय हम फिर एक बार किसी प्राकृतिक शक्ति से बंधे हुए पाते है शायद ऐसी घटनाओं से हर कोई वाकिफ हो जाता है यह एक जीवन का चक्र है जो इसी तरह से प्रकृति और विज्ञान के इर्द-गिर्द घूमते हुए दिखता है
     कितने साधु-सन्यासियों ने आकर बहुत कुछ हमें बता डाला कितनों ने तो केवल हमें ठगा और बहुत सारों ने व्यक्तिवाद और मनुष्यवाद से ऊपर उठकर अपने आपको भगवान का अवतार माना ऐसा मानने के लिए हमें विवश किया गया ऐसा हमारे बुद्धि को और इसे विज्ञान से दूर रखकर ही संभव बनाया गया जहाँ बुद्धि चली भी तो केवल उन भगवान के अवतार की हम तो बस अंधाधुंध अनुसरण करते चले गए
     हम जब भी इस तरह की बातें करते है, तो हर कोई पाठक सबसे पहले लेखक के सोंच के प्रकार को महत्व देने लगता है न की उसके लेख को और कुछ पाठक अपने विचार को उस दिशा में मोड़ लेते है जहाँ पर उसका और लेखक का विचार मिलता हुआ नजर आता है. कितना सही हैं न ऐसा तब होता है जब कभी दो प्रबल विचारों की टकराहट होती है परिणाम विरोध के रूप में आता है ........और लेखक को सम्मान उसके अंतिम संस्कार के बाद मिल पाता है जब वह इस प्रकार के मोह माया के बंधन से दूर चला जाता है
    भौतिक और सांसारिक बंधन जितना व्यापक है, उतना रहस्यमय भी जिसे समझ पाना उतना ही कठिन है, जैसे दूर से पानी और शराब में फर्क न कर पाने की बात जब तक समीप न जाएं तब तक पता नहीं चल पाता अच्छी तरीके से पता लगाना हो तो उसे सूंघना या चखना पड़ेगा चखना तो हर किसी के बस की बात नहीं, जब तक उसे पता न चले यह पानी और शराब के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकता मेरा कहने का आशय यह है बहुत चिन्तन और मनन के बाद भी हमें जीवन का सत्य के बारे में कुछ भाग का ही पता चल पाता है
     इस सामाजिक और विचित्र प्राणी (मनुष्य) का जीवन बहुत ही विचित्र है पृथ्वी पर आता है और एक समय के बाद चला जाता है किसी-किसी का जीवन खुशी से भरा होता है किसी का दुःख से भरा और बहुत सारे लोगों का इन दोनों से नाता होता है हालांकि ऐसा मानना तब संभव हो पाता है जब हम पूरे जीवन का विश्लेषण करें न कि वह स्वयं, जिसके साथ यह सब होता है सबके कर्म उसके व्यवहार से तय होता है यह वह नहीं समाज खुद करने लगता है उसके कर्म अच्छे और बुरा दोनों हो सकते है यह वह स्वयं भी करता है और समाज भी जैसे-जैसे सोंच व्यापक होती हैं बुरी सोंच अच्छी बनने लगती है और अच्छी सोंच और भी बुरी यह सब बस सोंचने का नजरिया होता है अच्छा और बुरा, यह सब तय हम कुछ मानदंडों पर करते हैं यह सब सामाजिक नीतिशास्त्र और व्यक्तिगत नीतिशास्त्र दोनों के अनुसार होता है मुझे पता है आप कुछ बातों से मुझसे और मेरी सोंच से आश्वस्त नहीं होंगे, परन्तु कुछ घटनाओं से हो सकते है जैसे- मैंने कुछ ऐसा काम किया जिसे समाज में गलत नहीं, परन्तु परिवार में गलत माना जाता है तो आप खुद ब खुद किसी सही-गलत की तलाश में भटकते हुए जरुर पाएंगे और अंततः आप जनमत की ओर जाने की कोशिश करेंगे
    इस संसार में आने के बाद न जाने कितनी गलतियों से हम सीखते और सिखाते है जिसका अनुमान लग जाए तो हमारी गलतियां, सही काम से कहीं ज्यादा होंगी इसीलिए यह व्यवस्था भी है, कि बहुत सारी सोंच को एक समय के बाद हम दिमाग की खुली खिड़की के माध्यम से छोड़ जाते है यह सत्य है, यहाँ सब कुछ संभव है बसर्ते हमें अपने आपको सही दिशा में ले जाने का प्रयास करते रहना चाहिए फल हमें प्रयास से ही मिलता है, न कि कहीं पर विश्राम करने से इस जिंदगी को जीने का मजा तभी पाया जा सकता है, जब हम गतिमान जिन्दगी की घड़ी के साथ गतिमान रहे। 
    किसी भी प्रकार के सहयोग के लिए मनुष्य से न सहयोग लेकर मनुष्य के विचार से लेना ज्यादा सही होता है इस बात से सहमत, आप उस सन्दर्भ में होंगे जब हमें किसी महापुरुष के विचारों का सहयोग लेना हो, जब वे खुद इस संसार से दूर चले गए हो परन्तु ऐसा नहीं है, ये बात हर जगह लागू की जा सकती है केवल विचारों की शक्ति का प्रयोग करके यह शक्ति अनंत है, जिसे समझना इतना आसान नहीं है अगर आप ऐसा करेंगे तो आप अपने बुद्धि का भरपूर प्रयोग कर पाने में सक्षम होंगे, जो किसी मनुष्य की उपस्थिति में बिलकुल ही संभव नहीं है
    "इस भाग में “जीवन के सत्य की ओर ........” में बस इतना ही। आगे आपके खुद के विचार मेरे लेख के सम्बन्ध में सादर आमंत्रित है। अगले लेख में, मैं समसामयिक भाग २ के लेख में आपके टिप्पणी अनुसार कुछ बेहतर लिखने की कोशिश करूँगा।" साभार,  
                                                                                   "-प्रभात"
  

Friday 26 December 2014

नव वर्ष का सन्देश .............

खिल रही कलियाँ यहाँ, प्रकाश जो आया है
नव वर्ष का सन्देश देने, प्रभात जो आया है
क्रिसमस आया है शिमला की यादों के साथ
दिसम्बर बीत जाने का संदेश, जन्मदिन लाया है

महीना पौष का था कभी जन्मदिन के साथ
आज फिर से वही जनवरी, आने को आया है
बारह महीनों के कुछ दिन थे बुरे, या रहे अच्छे
सारे महीनों को प्रभात, यादों में समेटने आया है

जम्मू तक चले गए थे कभी घर की चहारदिवारी से
साथ गुजारने वालों का, शुक्रिया अदा करने आया है
मंजिल न पाने की हसरत(खेद) में कई दिन गुजार दिए
मगर फिर से वही पाने का हौसला, नव वर्ष लाया है

मगरूर भी हुआ था पर सही रास्ते पर चलने के वास्ते
भटक कर राह पर आने की खुशिया ले आया है  
कुछ अच्छी शुरुआत होगी हमारे जीवन की
यही माकूलियत का भाव लेकर, प्रभात आया है

हर बार बातों को यादों में या यादों को बातों में गूथा
नव वर्ष अब उन्हें संजोने का रास्ता ढूंढ लाया है
आप भी खुश रहे और बहुत कुछ अच्छा करे
नव वर्ष की शुभकामनाएं देने, प्रभात अब आया है
                                                      -प्रभात   






Tuesday 23 December 2014

देश-प्रेम

कड़ाके की सर्द रात जब हमारे ध्यान में आती हैं तब हम कमरे से बाहर निकले ही होते हैं और जब हम हो सो रहे होते हैं तब रात आसमान के नीचे खड़े होकर दुश्मन से रक्षा कराते हैं - सरहद के रक्षक और असली पहरेदार. मेरे दिल में उन सभी के लिए एक अलग सी जगह बनी रहती है. कोई भी कविता या लेख इतना काफी नहीं हैं जो कुछ बयां कर दे फौजियों की हसरतों और उनके अटल इरादों को. फिर भी मेरी कुछ पंक्तिया खास इन्ही नौज़वानों को समर्पित है..........(पहली कुछ पंक्तियाँ देशप्रेमियों की एकता का सन्देश हैं और अंतिम कुछ पंक्तिया उनके असीम, अटल विश्वास और हौंसलों को उजागर करने का प्रयास करती हैं).


रुको चलूँगा साथ तुम्हारे, अभी मुझे आ जाने दो
बढ़ता कदम रुक जाए, उससे पहले आजमाने दो
जमी हुयी बालू सर्द में, रात अनोखी प्यारी रंग में
किसी से लहू मिले हमारा, साथ हमें भी आ जाने दो
रक्त-रक्त में देशप्रेम और सौभाग्य से प्रेम तुम्हारा
मिले कहीं ये सुख अमृत में भी न, पास जो रह जाने दो

कैसी ममता कैसा प्यार, पूछो इस प्यारी मिट्टी से यारों
माँ के आँचल जैसी मिट्टी, अब यही पर सो जाने दो
रुक कर पूछे हवा हमीं से, कहाँ पे उड़ जाऊं मैं
धैर्य दिला कर आते रहना, यहाँ मुझे बिछुड़ न जाने दो   
कहना मैं लौटूंगा, जब इतिहास कहीं पे लिखा होगा
फूलों से लिपटी अर्थी जब हो, खुशी से जल जाने दो 
                                                       -प्रभात

Wednesday 3 December 2014

ऐसे “प्रभात” होता हैं मगर वो नही होते।

मेरी याद का हिस्सा बनकर मत रहना,
-प्रभात
अकेले आते हो मगर “खाली” नही होते

कोई महफिल सजती है कभी बाजार में,
“तुम” होते हो मगर काफी नहीं होते

तुम्हारा प्यार खींचता है तरफ तुम्हारे,
मेरे साथ होते हो मगर ज्यादे नहीं होते

हर किसी को दिल में कैद करना भारी है,
हमारे शब्द बताते हैं मगर दिल नहीं मानते

अजीब बात है हम चाहते तो है कुछ,
ख्वाब कहते हैं मगर वे सच नहीं होते

कैसा सिलसिला  चलता जा रहा है,
उन्हें बात करना है मगर हम नहीं होते

बताता रहा हूँ अपने दिल की हर बात,
सुन लेते हैं मगर कुछ कह नही पाते

लपकती चिराग को हवा चाहती है बहुत,
ऐसे “प्रभात” होता हैं मगर वो नही होते
                                   -“प्रभात”