Sunday 25 May 2014

विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उठ रहे सवाल!

           विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उठ रहे सवाल!


   वर्तमान में मिल रही विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता का ही परिणाम है कि आज फेसबुक, व्हाट्स एप्प, ब्लॉगिंग और अन्य माध्यमों का तीव्र गति से विकास होता चला जा रहा है. मैं खुद स्वतंत्रता का विशेष रूप से अनुयायी रहा हूँ चाहे वह किसी चीज को करने से सम्बंधित हो. हाँ वह चीज नैतिक रूप से की जाने के लिए ही हो. स्वतंत्रता का इतिहास हमारे दिल और दिमाग दोनों में कूट-कूट कर भरा और बसा हुआ है. यहाँ मैं केवल वर्तमान परिदृश्य में मिलने वाली विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर कुछ सवाल खड़े करना चाहता हूँ, जो बहुत ही संवेदनशील विषय मुझे प्रतीत होते हैं. 

   सर्वप्रथम मैं मीडिया पर उठने वाले नकारात्मक सवालों की बात किये बगैर उसके पीछे छिपे मूलभूत कारणों को सामने लाने का प्रयास करता हूँ. मीडिया के अनुप्रयोग से भली भाति आप सभी परिचित है. प्रेस की महत्ता को आज के सौ वर्ष के पहले से ही स्वीकारा गया है लोकतंत्र में सबसे पहले यही बात सामने आती है. यह सच है की मीडिया मीडियम का कार्य करता है. मीडियम या माध्यम:- जनता और देश की बागडोर संभाल रहे लोगों के बीच. इसी माध्यम का ही परिणाम रहा है कि धीरे-धीरे हम इसके एक स्वतंत्र ताकत के रूप में उदय होने की चौथी व्यवस्था मानने लगे हैं. अर्थात यह चौथी व्यवस्था लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार, न्यायपालिका के बाद की मानते हैं. 
   मुझे यह कहने में संकोच नहीं है जिस तरीके से इसने भारत जैसे देश में अपने उदय की चौथी व्यवस्था को प्रमाणित किया हैं वह निश्चित रूप से धीरे-धीरे अन्य तानाशाही देशों को अपनाने के लिए बाध्य करेगा। मीडिया के विचारों की अभिव्यक्ति को माना जाता है की यह एक तरीके से जनता की हितैशी है क्योंकि जनता के सामने यह जनता की ही बात करती है. अब यह बात स्पष्ट रूप से साबित हो चुकी है की जनता को सहभागी बनाया जरूर जाता है और जनता के अनुसार मीडिया चलती है. 
   अगर हम बहुत चिंतन मनन करें तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मीडिया के अनुसार जनता चलती है जनता के अनुसार मीडिया नही. अब वह दिन नहीं रहा हैं जैसे पहले हमारे घरों में टेलीविजन नहीं होता था आज टेलीविजन तो गाँव-गाँव में फैल गया है. यह विकास का नमूना हैं परन्तु यहाँ ध्यान देने की जरुरत हैं यह विकास उपभोक्तावादी दृष्टकोण से हैं. इस विकास से जरूर फायदा मिला हैं  देश के कोने कोने की खबरों को सुनने में अर्थात मीडिया के विकास के उच्चतम प्रयोग करने में. पर क्या यह विकास महज बच्चों को बैठे-बैठे कार के गेम खिलाने, विज्ञापनों को देखकर बाजारीकरण के लिए, हमें समाचारों से विचलित करने, आत्महत्या करने को विवश करने और शक्तिमान की उड़ती प्रतिबिम्ब के साथ प्राण को उड़ाने या झूठी भ्रामक तथ्यों को पहुंचाकर मानसिकता को उलटी दिशा में पहुचाने तक के लिए ही किया गया है?
   भारत में मीडिया का ही कमाल हैं कि यह सत्ता के सिंहासन को किसी से छीन कर किसी के पास पंहुचा देता है. यह सबने देखा होगा की पिछले दिनों मीडिया ने अरविन्द केजरीवाल के २८ सीट लाने की वजह से उन्हें राजा की गद्दी पर बिठा दिया था और उन्हें फिल्मों की तरह एक नायक बना दिया था और आज गालियां ही गालियां उगल रहा है. यहाँ सभी के विचारों की दिशा एक जैसी नहीं हो सकती परन्तु अगर सोचे तो जो मीडिया जनता की हितैशी होने के नाम पर ही टिकी हुयी है अगर सोचे तो ऐसा लगेगा कि सच्चाई तो कुछ और है बस यहाँ मीडिया एक कंपनी है और यह अपना बिजनेस देखती है जनता का मत नहीं बस कुछ चंद लोगों की दादागिरी होती है. यह आलोचना इस समय मीडिया का करना देशहित में इसलिए जरुरी है क्योंकि कभी इसके स्वतंत्रता की बातें उठती थी और उठती हैं पर वास्तव में क्या यह स्वतंत्र है क्या जनता का पक्ष मीडिया में रखा जाता है या मीडिया का पक्ष जनता में?  
   विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरुरी है यह मैं ही नहीं हर कोई इस बात से सहमत होगा। परन्तु यह विचारों की अभिव्यक्ति सियासी रंग में इस तरीके से न रंग कर की जाये जहाँ दो परस्पर विचारधारों के लड़ने की सम्भावना हो, जहाँ धर्म और संप्रदाय के नाम हिंसा फैलने  का खतरा हो और जहाँ जनता के हित कि बजाय अपने अनैतिक हितों के स्वार्थ का सवाल हो. आज कोई साम्राज्य वादी ताकतों से लड़ाई का दौर नहीं है जहाँ हमारे विचार दबा दिए जाते हो. परन्तु लगता है कि यह वही दौर है सिर्फ अंतर इतना है यहाँ बिजनेस एक बहुत बड़ा कारण है और दूसरा कारण स्वार्थवादी मानसिकता से अनैतिक कामों में हिस्सेदारी। आज कल मीडिया में ख़बरों में "गुस्ताखी माफ" "सो सॉरी" जैसी परिकल्पनाओं का विकास देश के सामने क्यों लाया जाता है केवल मजाक बना कर कुछ लोगों का मनोरंजन कराने के उद्द्येश्य से या फिर इसका कोई विस्तृत बहुमुखी उद्देश्य है
   जरा सोचिये आपने कुछ लोगों का मनोरंजन तो करा दिया लेकिन यह बात बखूबी साबित कर दिया कि आप किस हद तक अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने के लिए जा सकते है. आप किसी का परिहास इस तरीके से उड़ा कर उनके बच्चों के सामने किस परिस्थिति का बोध कराते है?
   मीडिया का प्रयोग और उसके द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति करने के लिए उठाये जा रहे नए नवाचारों का स्वागत करना जरुरी है परन्तु इससे किसी अच्छे व्यक्ति को बुरा बताने की कोशिशो और किसी बुरे व्यक्ति को अच्छा बताने की कोशिशों के लिए नहीं होना चाहिए और जहाँ तक संभव हो व्यक्तिगत टिप्पणी करने की बजाय प्रेस/समाचार पत्रों की तरह के कार्टूनों का प्रयोग करना उचित और सार्थक कदम होगा। जनता की उम्मीदों को तोड़ने की बजाय उसके मनोबल को ऊंचा करने में हो. अगर ख़बरों की कमी हो तो बेवजह रंगीले और भड़कीले ताकतों का प्रयोग किसी के भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने में क्यों हो?
   मीडिया की स्वतंत्रता की व्याख्या हमारे द्वारा जिस तरीके से की जाती है उसमें कहीं न कहीं कमी है  इस कमी का ही परिणाम है जिन विभिन्न समस्याओं को मैंने अब तक रेखांकित किया है यह स्वतंत्रता अपने मौलिक रूप में पूर्ण रूप में नहीं है कहीं न कहीं यह दबी और कुचली है वह चाहे कुछ लोगों की सड़ी गली मानसिकताओं से या फिर उनके प्रभाव में आकर अपने स्वार्थ को प्राप्त करने के उद्देश्य से. अब जब आज मीडिया का प्रभाव वैश्विक स्तर पर है तो इसे बरकरार रखने के लिए ही हमें इन बातों पर गहन विचार करना होगा और इसके लिए अपने आपको माध्यम बनाना होगा।  

Wednesday 21 May 2014

उन उलझी बातों को ही अब क्यों न सुलझ जाने दूँ!

चुभ गयी जो बातें उन्हें कैसे मिट जाने दूँ
अपने किस्मत को ही कैसे बदल जाने दूँ
माफ करना कह कर कुछ रुक जाने दूँ
या रुकी बातों को जीभ से मचल जाने दूँ?

कुछ तरीकों से मैंने अब हिम्मत जुटाया है
ध्यान और ज्ञान के नतीजों से राहत पाया है
कभी चिंता में भटकने का परिणाम मिला था
अब भटकती राहों को ही फिर क्यों न बदल जाने दूँ?

बेशक मुझे अब नए रास्ते ढूंढने होंगे
पुराने रिश्तों को कुछ भूलने होंगे
अपनी खुशी के लिए भूलने की क्यों न दिक्कत हो
उन उलझी बातों को ही अब क्यों न सुलझ जाने दूँ?

Friday 16 May 2014

राजनीति-२०१४ के वास्ते!

अब कर चुका बहुत इंतजार
अबकी बार किसकी सरकार?
भीड़ में बहुत पोल बिक रहे
३ दिन सब्र कैसे करें जब
टी वी के नहीं बिल बढ़ रहे
समय किताबों से कट नहीं रहे
हम जुआरी बन रहे
रहस्य का पर्दा चौराहो पे ही खुल रहे
इस बार कुछ ज्यादा मजेदार?
कुछ नेता कहला रहे
कुछ पी. एम. पहले बन बैठे
कुछ की वर्दी टाईट है
कुछ की साईकिल अब बाइक है
कुछ जानवर तो कुछ मानव है
कुछ का राजनीति से न कोई सरोकार?
ये कैसा जनतंत्र है
लोकतंत्र या मीडिया तंत्र है
अमीरी है या धन की डिहरी है
अम्मा की पूँजी अब बेचनी है
दानव का कभी सिंहासन हो
पलट जाएगी बाजी अपनी जब 
किस्सों से बन जाती सरकार?
गरीबी हो या हो बदहाली
घर की दाल नहीं अब गलने वाली
५ साल में पूजा करनी होगी
तकिये से नीचे उतरनी होगी 
त्योहारों का मेला लगता है जब  
ऐसा होता है फिर क्यों इंतजार?
अन्याय बहुत है समाज का
बदहाली के फायदा का
केवल वोटों से ही रिश्ता का
कुम्भ मेले से रिश्ता का
धार्मिक जीवन के अनुयायी हैं
हमीं है केवल भगवन के अवतार?
मूल्य ऊल्य अब अमूल नहीं
बातों की कोई साँच नहीं
रिश्तों की कोई बुनियाद नहीं
अब मान लिया हमने अगर
वोट दिया पर न माने वो अगर
हो रहा परेशान बाकी से नहीं अगर
तो क्यों मुझसे होती है तकरार?
मान नहीं सम्मान नहीं
उस पर्दा का कोई यार नहीं
फेक देंगे ओढेंगे कटी चुनरिया
बातों के रिश्ते का
बेवकूफी के किस्से का
हकीकत नहीं फिर किस गुस्से का
सियासी चालों के हो जाते क्यों शिकार?
मेहनत की रोटी क्यों खानी
पीये घर के नल का क्यों पानी
मंज़िल सबकी थी एक ही वही
भ्रष्टाचार की खुल जाती बही
मकान हो या हो दुकान
पैसो से मिल जाती क्यों राह?
इतिहास अभी तक रहा है ऐसा
जीतेगी जनता नहीं बस पैसा
खुलती राह मिल जाती है जब
करें देर क्यों हम हर बार?
लगता है किस्मत था नहीं यहाँ कुछ
थाह नहीं था जाति के चक्कर का कुछ
बंधे हुए है जब जातिवाद में सब
कितनों की ऐसे आएगी सरकार?
नेता जी के रिश्तों तक कुछ
प्यार नहीं बस परिवार है
यहाँ फिर कैसा सरकार है
समय ही होती क्यों फैसलेदार
संप्रदाय का बीज लगा है
कहीं रक्त का रोग लगा है
मानवता का प्रकोप नहीं
इंसान को कभी सुकून नहीं
फिर मंदिर से होता है परोपकार?
उड़ान हवा में लगती नहीं
फैसले से वो डरते नहीं
करते है मुलाकात से जो शुरुआत
मिलकर बातें करते है
राहों में साथ ही चलते हैं
फिर उन पर बातों की होती है वार?
कभी बोलना आता है
कभी मम्मी तो कभी पापा है
रिश्तों में दरार नहीं
फिर भी हम पर विश्वास नहीं
कुछ दिन चले जाते है
वोटों में घुस जाते है
जनता के बीच संवाद नहीं
कैसे हो जाता है करार ?
सोने के दिए जलाते है
मिटटी से नहीं पूजे जाते है
फूलों के गहनों में सजते हैं
बस तूफ़ान खड़ा जब करते हैं
लड़ जाते है मायिक लेकर
आयोग से कभी भिड़ने वाले
करते हैं कुर्सी का इंतज़ार?
कर रहा हूँ अब भी इन्तजार
ख़त्म करो खेल आ जाओ पास
मिल कर देश बचाएंगे
सीने पे चढ़ जायेंगे
हकीकत से मिल जायेंगे
बाटेंगे देश अगर
कर देना बन्दूक से वार?    

Wednesday 14 May 2014

सामने वाला छोटू

   रात्रि काल में वह खुले आसमान तले गहरी नींद ले रहा था. प्रकाश थोड़ी बहुत उस पर जो पड़ रही थी वह मेरे सामने वाली खिड़की का कमाल था. परन्तु ऐसा भी नहीं था थोड़ी बहुत प्रकाश जुगनूं भी देने आ गया था. उसकी परछाई टिमटिमाते तारों ने टूटी चारपायी के थोड़े बगल ढकेल रखा था. उसके ख्वाब मानसूनी हवाओं ने उड़ा रखे थे. आज तो वही दिख रहा है. आसपास सन्नाटा है मानों बादलों की फिक्र भी कम हो गयी है और ये केवल चौकीदार ही है. यह चौकीदारी करने वाला लड़का किसका है? प्रश्न तो बनता ही है. जवाब भी उसकी टूटी खाट ही देगा। अकेले वह तो हवाओं से रक्षा करता है और फिर रात को इंजेक्शन लगाने वाले खून के आदी उस स्वतन्त्र जीव से. यह रात अब तो ऐसे ही उथल-पुथल करती रहेगी। यह क्या कर लेगा उसका तो है ही कौन?.  
    जब मेरी आँख थोड़ा सूरज की ओर देखती हैं. पता लगता है सूरज अभी पूरब  से आने ही वाला है और मैं आँख मल रहा होता हूँ अचानक हीं सामने उस तक निगाह जाते ही आँखे टकटकी लगा लेती हैं. वह बेवजह ही तो झाड़ू लगा रहा होता है जब वहां कोई आँख मलते हुए भी नहीं दिखता। अरे आज ये तो बहुत पहले जग गया. ऐसा हर दिन ही होता है मुझे क्या पता था? नहीं वह तो आज कच्छे गीले कर रखा है बिन नहाए ही. वो रात के आसमान का पानी है. संघर्ष तो आपस में मेरे रात वाले सवाल ही कर रहे थे. सामने संघर्ष करने की आवाज आयी। ओ छोटू तेरा उठना कब हुआ है? जी अांती अभी उठा हूँ वह छोटू ही था बड़े नादानी चाल में यह जवाब था. ओय! छोटू तेरा टयम कल से दूसरा होगा। अंकित स्कूल जायेगा उसके लिये तेरे को पहले उठना पड़ेगा। ठीक है अांती छोटू बोला।
    दूसरे दिन ऑन्टी उठी भी नहीं थी की छोटू अपने सुबह के सारे काम निपटा लिया ये काम थे अंकित का जूता साफ करना और सभी शयन वाले लोगों के लिये नास्ते का इन्तज़ाम। जब अंकित उठा था तो छोटू एक उसकी किताब पलट रहा था. किताब में उसने देखा की चार बालक स्कूल जा रहे है. छोटू उससे बोला अंकित भैया आप इन चारों के दोस्त हो? जरा स्कूल के बारे में बता दो.... ऑंटी ने कभी मुझे स्कूल के बारे मे नहीं बताया! छोटू की इस अज्ञानता की वजह शायद कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। इससे पहले तो वह ढाबे पे टिफ़िन देने का काम करता था.
   जब वह टिफ़िन देने एक बार नीचे मकान पर रहने वाले भइया के पास आया  था तब एक बार मैने पूछा था कहाँ घर है? छोटू ने बताया था घर तो कभी गया नहीं! यहीं मिलूंगा। इस अंदाज में उससे प्रश्न का उत्तर पाकर मुझे आश्चर्य जरूर हुआ था. अभी मैं देखता हूँ अंकित के आने तक तो वह घर के लगभग दिन भर के सारे काम पूरे मन से करता हैं. पोछा लगाता हैं उस जगह पर जहाँ सफाई कभी  घर बनते समय किसी कारीगर ने की थी!
    मैं उससे प्रतिदिन एक सवाल पूछना चाहता हूँ परन्तु उसे उस काम से फुर्सत नहीं। और कभी होता भी है तो घर के सामने धूप में उसी टूटी चारपायी पर बैठे घर रखाते हुए वह दिखता है. जब घर में कोई नहीं होता केवल वही होता है तो मुझसे पहले वह मेरी तरफ देखते हुए मुसकराते मिलता है और तभी अचानक मेरी भी नजर उस तक पहुँचती है और मैं भी मुसकरा देता हूँ. शायद वह भी मुझसे कुछ प्रश्न करना चाहता है परन्तु छोटू के सारे छोटे काम उसे इस पर विचार करने का समय नहीं देते। मैं उससे मन ही मन बहुत प्रश्न कर इस बात से खुश हो जाता हूँ कि चलो जिंदगी नहीं बन रही है तो इतना ही क्या कम हैं की उसे भीख नहीं मांगनी पड़ती। 
    सोचता हूँ की कानून के साथ चलूँ पर वहाँ समझ आ जाता है छोटू के मौलिक अधिकार अभी क़ाग़ज तक सीमित है एफ. एम. की आवाजों में कुछ हल है तो वह इसलिए है जिससे छोटू केवल सडक़ पर भीख मांगने के लिये मजबूर हो। शिक्षा तो वो बहुत ले चुका हैं उन सर्द व गर्म हवाओं के बीच. अब वह छोटू है तो छोटू ही रहेगा इसके लिये अभी वाला घर ज्यादा अच्छा है परन्तु जब एक दिन सच में स्कूल की जरुरत खुद से महसूस होगी तो निराशा उसके छोटू बनने की वजह से उसे होगी। और वह दिन छोटू को बड़ा बननें में शायद कभी मदद नहीं करेगा!

Sunday 11 May 2014

विचारों की दिशा……………..(3)

बुद्धि की स्मृति में!

   पशु प्रेम तो हममे से हर किसी को होता है यह बात अलग है कि वह पशु कौन है. जब आज मैनें समाचार सुना कि अमूल दूध के दाम में २ रूपये की बढ़ोत्तरी हुई तब मुझे विचार आया क़ि अपने इस लेख में मैं बुद्धि के बारे में जरुर प्रकाश डालूँ।                                    
   वह जब मेरे घर आयी थी वह दिन बुद्धवार का था काली रंगों में रँगी वह तो माँ से दूर जाकर बैठी थी मुझे फोन पर जब पता चला तो सुनकर अच्छा लगा कि उसका नाम बुद्धि सही ही रखा गया है. वह अन्य गायों से अपनी अलग पहचान बना रखी थी जब उसके पास मेरी माँ जाती थी तो मारने दौडती थी और जब मैं तब बड़े आराम से अपने पास बुलाती थी वह अक्सर ऐसे लिंग अन्तर के साथ आवभगत करती थी. पिछले दिनों जब मैंने सुना कि उसने एक बछडा दिया है तो बहुत अच्छा लगा कि दूध की व्यवस्था परिवार में हो गयी अब घर जाऊंगा तो जरुर खिजरा (दूसरे दिन का फटा दूध) खाने को मिलेगा.
   घर जाने के लिये अपने कमरे से निकलने ही वाला था. अभी रेलवे स्टेशन पहुंचा नहीं था की सन्देश मिला कि बुद्धि एक बीमारी की वजह से दोपहर में संसार से अलविदा कह गयी! सवाल दूध का ही नहीं था उसके प्रेम का था उसकी यादों के साथ जुड़ी वह कहानी थी जिसने मेरे आँखों को आंसुओ से नम करने में देरी न लगायी अब निराशा भीं थी कि ४ दिन का छोटा बछड़ा कैसे जीयेगा, उसके साथ अब कौन खेलेगा? ऐसे कई सवाल दिमाग में चल रहे थे.
   घर पहुँचकर जब उस बछड़े से मिलने गया तो मेरे सारे सवाल उसके बचपन के हाव-भाव में छिपकर भी कुछ हद तक मेल खाते दिख रहे थे यही सारे सवाल उसने अपनी इशारों और चार दिनों के हरकतों से मुझसे पूछ लिया और मैं मूक बना रह बस उसके कभी पैर सहलाता कभी कोमल गालों को छूता और कभी परजीवी ताकतों से रक्षा के लिये अम्मी के साथ मिलकर नहलवाता रहता। परन्तु हर तरफ बछड़ा अपनी "अम्मा" को खोजने के लिए भागता रहता उसके साथ बुद्धि ने २ -३ दिन ही बिताये थे परन्तु वह २-३ दिन उसकी यादों के लिए काफी था वह हर जगह ढूंढता जहाँ भी वह अपने  अम्मा के साथ रहा।
   आप तक उसकी बात पहुँचाने के लिये मैंने कुछ लाइनों का सहारा लिया हैं शायद इसमें भी सम्पूर्णता ना हो परन्तु उसके लिये यह एक छोटा प्रयास है -

माँ  मेरे प्रेम की खातिर पीड़ा बहुत उठायी हो, अब मुझे पाकर तुम्हे रोना नहीं पड़ेगा

(जब माँ के गर्भ से बाहर आता है उस पल के बारे में)

तेरे हर कष्ट में सदा साथ निभाउंगा
तेरे भौहों के संकेतों का पालन जरूर करुँगा
तुम चारा ख़ाना मैँ हरी भरी घास भी नहीं छूऊँगा
ध्यान रखना बस जब माँ एक बार मेरी आवाज सुनो
बस दूध पिलाना बिन पूछें की पास में क्यों आये हो.
(अपने आपको त्याग की भावना से परिचय कराते हुए)

जब तुम पागुल करोगी तेरे निकट मैं आ जाऊँगा
तेरे मोह की खातिर मैं गोदी में ही सो जाउँगा
सिखा देना स्नेह से अपने सारे काम
इसी स्नेह की खातिर माँ एक बार मेरी आवाज सुनो
बस दूध पिलाना बिन पूछें की पास में क्यों आये हो.
(अपनी शरण में रखने की बात)

मत घबराओ माँ मैं तेरे पास ही आऊंगा
एक बार दूर जाकर भी तुरन्त वापस आ जाऊंगा
पग मेरा बढ़ेगा माँ पाकर तेरा साथ
घुन-घुन की आहट में माँ एक बार मेरी आवाज सुनो
बस दूध पिलाना बिन पूछें की पास में क्यों आये हो.
(माँ को चिंता ना करने की सलाह)

लगता है माँ तुम मुझसे हो नाराज
ऐसा है माँ तो लो मै नाराज नहीं अब होंने दूंगा
चारा खाना तुम मैं घास भी नहीं छूऊँगा
बचकानी आवाज में माँ जब एक बार मेरी आवाज सुनो
बस दूध पिलाना बिन पूछें की पास में क्यों आये हो.
(अपने आपको दोषी ठहराते हुए)

लगता  है माँ दो दिन हुए अब दूर कहीं तुम चली गयी
सोयी थी कल पुआल के पास कैसे तुम छोड़ गयी
दूध पीना बंद है मैं नेपुल से भी नहीं पी पाउँगा
इसी धूप में पुआल पर मां एक बार मेरी आवाज सुनो
बस दूध पिलाना बिन पूछें की पास में क्यों आये हो.
(अब ना पाकर हमारे द्वारा ढूध पिलाये जानें के ढंग को अनावश्यक समझते हुए)


अनजान यहाँ है दुनिया कब तक ऐसे देखूंगा
अब मैं इस अनजान सी राहों में ऐसे क्यों दौड़ूंगा
आओगी माँ मुझे पता हैं ऐसे मैँ नहीँ जी पाउँगा
ऐसे ममता की यादों में माँ एक बार मेरी आवाज सुनो
बस दूध पिलाना बिन पूछें की पास में क्यों आये हो.
(न पाकर भी एक आशा दिलाते हुए)
   यह सच हैं कि अपनी माँ की यादों में और इस प्रकार की व्यथा में वह बछड़ा भी कुछ दिनों बाद चल बसा! यह अलग बात है उसे भी किसी बीमारी से ग्रसित समझ कर उसका एक अलग कारण बताएँ।
   मेरे इन सब बातों को पहुँचाने का एक आशय यह है कि आप तक समय की प्रासंगिकता की याद दिलाते हुए मैं बुद्धि जैसे खासकर गाय परिवार की समस्याओं की ओर आपका ध्यान आकृष्ट कराऊं।
   इसमें कोइ संदेह नही है. मनुष्य ने शब्दों का चयन अपने लाभ के लिये किया है. अब देखिये न, नंदी बैल को शिव जी की सवारी बनाया और इसका प्रयोग हम गांवों-गावों में खेत के अन्न भंडार क़ी सुविधा से लेकर देश की अर्थव्यवस्था के हर एक पहुलओं में करते थे. बैलों के प्रयोग की वजह से भारत की एक पहचान थी. 
   परन्तु अगर आज हमारे विचार सही दिशा में हैं तो आज कुछ कड़वे सच क्यों सामने हैं जिसे आप भली-भांति जानते है कि आज इन सारे बैलों का प्रयोग केवल भक्षण तक सीमित रह गया हैं क्योंकि हमारी मानव जाति ने समय के हिसाब से इनका प्रयोग आदिमानव के युग की तरह करना सीख लिया है हम आदर्शों और परम्पराओं की बात करते है यहाँ तक की राजनीतिक मंच पर भी परंतु सियासी रंग देने के लिये। हम दूसरों को याद दिलाते हैं केवल अपने लाभ के लिये।  हम देश के हित को अपने हित से समझौता करने में नहीं चूकते। आज हर एक घर परिवार अपने बछड़े को खेत में खुला छोड़ आता हैं. चरनें के लिये नही, केवल उसे भगाने के उद्देश्य से। वह चाहे कितना सुन्दर बैल क्यों ना बने ,परन्तु उसे केवल अन्तिम सजा देने वाले ही उसे देखने आते हैं.
   हमें अपने मानसिकता को बदलनें की आवश्यकता हैं ना की अपने विचारों की दिशा को. हमारे विचार तो अपने आप सही दिशा में समय के हिसाब से बदलते रहेंगे। क्यों ना अपने आप को देश के रक्षक कहने वाले सांसद इस दिशा में कोई विकल्प ढूँढ़ते।
   आज हम बड़े प्रेम से गाय को गऊ माता कहते हैं बुद्धिजीवी इनकी पूजा भी करते है पर कभी-कभार त्योहारों के समय तक ही सीमित क्यों रखा जाता है. सड़क पर खड़ी माता को २ रोटी देने चल देते हैं क्योंकि इनका हृदय ऐसा करनें के लिये प्रेरित करता है. मैं जब कूड़ा डालने सड़क पर जाता हूँ तो इन माताओं के झुन्ड मेरे पास दो रोटी खाने के लिये आते हैं. उनके आखों में सौन्दर्य नही बल्कि आसूँ झलकते है. यह भी सुंदरता ही हुई न? वो असहाय जीव मुझे आते देख मेरी ओर, फिर बाल्टी में बड़े प्रेम से देखते हैं और जब जान जाते है यहाँ खाने कि लिये कुछ नहीं है तो वे बड़े प्रेम से पीछे हट जाते हैं. कभी-कभी ये झिल्ली चबा जाते हैं और पेट में लिये घूमते हैं ये दिल्ली जैसे शहर में तो आम बात है, जो दिल्ली भारत की पहचान हैं. मुझे हर बार यहाँ से गुजरने पर दर्द होता है, आप जैसे कुछ लोगों को भी होता ही होगा कि न जानें ये गलती से ब्लेड और ऐसे कितने वस्तुओं का प्रयोग अपने पेट के लिये करते रहते हैं और अंततः सकून की नींद में सो जाते हैं. सच भी है हर कोई इन बातों से अवगत हैं, परन्तु अमूल दूध पीते वक्त इनके बारे में जरा भी नहीं सोचते।
   सबसे बड़ा सवाल हैं? बड़े प्रेम से कहते हैं की दूध सम्पूर्ण आहार है और दूध प्रतिदिन पीना चाहिए परन्तु यह कहाँ से मिलता हैं एक बार अपने आप से सवाल करें?
यह सवाल नहीं अब मेरा विचार हैँ- अमूल दूध का दाम ऐसे बढ़ता रहेगा और हम चुकाते जायेंगे क्योंकि महंगाई का जमाना हैं. कुछ दिनों बाद दूध केवल हिंसक अमीर लोगों तक सीमित रह जायेगा ये  अमीर लोग पानी पीयेंगे दूध समझकर या फिर पाउडर।
   दूसरा सवाल यह है? कि गाय माता की जरुरत खत्म नहीं हुई परन्तु हम इनको सम्मान देने की बजाय कब तक ऐसे सजा देते रहेंगे।
इस पर मेरा विचार है- कि थोड़ा नैतिक ज्ञान की जरुरत है देश के उन विद्वानों को जो गद्दी पर बैठ कर दूध की जगह शराब का आनन्द उठाते हैं और दिन रात इसके बारे में नीतियॉं बनातें हैं.

   बस अब यही दो सवाल और मेरे विचार काफी हैं. मेरे जैसे आलोचना करने वाले तमाम लोग होंगे, परन्तु इन आलोचनाओं के पीछे मर्म है. उसे भी समझने की कोशिश कीजियेगा और ध्यान रखिएगा इनके साथ प्रेम जुड़ा हुआ है, बुद्धि जैसे जीवों के बारे में। इसीलिए मैने पहले ही परिचय करा रखा है। इस लेखन में विचारों की दिशा मात्र है और ऊर्जा तो आपसे मिलेगी।