Wednesday 31 December 2014

जीवन के सत्य की ओर..............(समसामयिक भाग-१)

 जीवन के सत्य की ओर..............(समसामयिक भाग-१)
    मैं कोई साधु-संयासी, दर्शनशास्त्री नहीं हूं फिर भी मन में जगे भाव को यहाँ शब्दों में कहने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं न तो सगुण हूँ न ही निर्गुण परन्तु एक मनुष्य परिवार के होने के नाते कुछ मन के भाव को इस लेख के माध्यम से आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूँ चिन्तन करना हर मनुष्य का काम है इसलिए चिन्तन करना और उसी के माध्यम से अपने जीवन के पलों का एक निश्चित समय में पुर्नविलोकन करने का काम मैं भी करता रहता हूँ


     यह संसार एक घर की तरह है, और घर तो अनेकों है जिसे हमने बनाया बस अंतर इतना है घर हमने बनाया और संसार किसी और ने बनाया, जो हमारे समझ से परे है देवी-देवता शब्द हमने बनाया है सत्य को पता करने की जिन-जिन लोगों ने कोशिश की वे इसकी परिधि में अंततः आ ही गए
     मनुष्य जब पृथ्वी पर आता है तो जाने, अनजाने दो तरह से आ जाता है यह जाने, अनजाने का मतलब एक दुर्घटनावश और दूसरा जान बुझकर दुर्घटनावश आना मनुष्य का कितना जरुरी है, ये हम सभी जानते है दुर्घटनाएं होना भी शुभ और अशुभ दोनों का संकेत है बस अंतर उस बात का हो जाता है, कि हम उसे किस समय और किस सोंच से आत्मसात कर रहे हैंजानकर पृथ्वी पर लाने का काम मनुष्य ही कर सकता है बजाय किसी प्राकृतिक इच्छा के, जो की दुर्घटनावश हो जाया करती है इतना तो विज्ञान ने हमें समझा ही दिया है, कि किस बात का प्रयोग कैसे करना हमारे हित में है
     मनुष्य शुरू में भगवान के समीप अपने आपको पाता है, और समय बीतते जाने पर अर्थात खुद की बुद्धि आ जाने पर वह भगवान के समीप होने की बजाय अपने आपको विज्ञान के समीप लाता है जैसे-जैसे और समय बीतता है अर्थात अगर हम मनुष्य की आयु की बात करे तो जब वृद्धावस्था की बात करें  या फिर इस संपूर्ण पृथ्वी की आयु की बात करे, ऐसे समय हम फिर एक बार किसी प्राकृतिक शक्ति से बंधे हुए पाते है शायद ऐसी घटनाओं से हर कोई वाकिफ हो जाता है यह एक जीवन का चक्र है जो इसी तरह से प्रकृति और विज्ञान के इर्द-गिर्द घूमते हुए दिखता है
     कितने साधु-सन्यासियों ने आकर बहुत कुछ हमें बता डाला कितनों ने तो केवल हमें ठगा और बहुत सारों ने व्यक्तिवाद और मनुष्यवाद से ऊपर उठकर अपने आपको भगवान का अवतार माना ऐसा मानने के लिए हमें विवश किया गया ऐसा हमारे बुद्धि को और इसे विज्ञान से दूर रखकर ही संभव बनाया गया जहाँ बुद्धि चली भी तो केवल उन भगवान के अवतार की हम तो बस अंधाधुंध अनुसरण करते चले गए
     हम जब भी इस तरह की बातें करते है, तो हर कोई पाठक सबसे पहले लेखक के सोंच के प्रकार को महत्व देने लगता है न की उसके लेख को और कुछ पाठक अपने विचार को उस दिशा में मोड़ लेते है जहाँ पर उसका और लेखक का विचार मिलता हुआ नजर आता है. कितना सही हैं न ऐसा तब होता है जब कभी दो प्रबल विचारों की टकराहट होती है परिणाम विरोध के रूप में आता है ........और लेखक को सम्मान उसके अंतिम संस्कार के बाद मिल पाता है जब वह इस प्रकार के मोह माया के बंधन से दूर चला जाता है
    भौतिक और सांसारिक बंधन जितना व्यापक है, उतना रहस्यमय भी जिसे समझ पाना उतना ही कठिन है, जैसे दूर से पानी और शराब में फर्क न कर पाने की बात जब तक समीप न जाएं तब तक पता नहीं चल पाता अच्छी तरीके से पता लगाना हो तो उसे सूंघना या चखना पड़ेगा चखना तो हर किसी के बस की बात नहीं, जब तक उसे पता न चले यह पानी और शराब के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकता मेरा कहने का आशय यह है बहुत चिन्तन और मनन के बाद भी हमें जीवन का सत्य के बारे में कुछ भाग का ही पता चल पाता है
     इस सामाजिक और विचित्र प्राणी (मनुष्य) का जीवन बहुत ही विचित्र है पृथ्वी पर आता है और एक समय के बाद चला जाता है किसी-किसी का जीवन खुशी से भरा होता है किसी का दुःख से भरा और बहुत सारे लोगों का इन दोनों से नाता होता है हालांकि ऐसा मानना तब संभव हो पाता है जब हम पूरे जीवन का विश्लेषण करें न कि वह स्वयं, जिसके साथ यह सब होता है सबके कर्म उसके व्यवहार से तय होता है यह वह नहीं समाज खुद करने लगता है उसके कर्म अच्छे और बुरा दोनों हो सकते है यह वह स्वयं भी करता है और समाज भी जैसे-जैसे सोंच व्यापक होती हैं बुरी सोंच अच्छी बनने लगती है और अच्छी सोंच और भी बुरी यह सब बस सोंचने का नजरिया होता है अच्छा और बुरा, यह सब तय हम कुछ मानदंडों पर करते हैं यह सब सामाजिक नीतिशास्त्र और व्यक्तिगत नीतिशास्त्र दोनों के अनुसार होता है मुझे पता है आप कुछ बातों से मुझसे और मेरी सोंच से आश्वस्त नहीं होंगे, परन्तु कुछ घटनाओं से हो सकते है जैसे- मैंने कुछ ऐसा काम किया जिसे समाज में गलत नहीं, परन्तु परिवार में गलत माना जाता है तो आप खुद ब खुद किसी सही-गलत की तलाश में भटकते हुए जरुर पाएंगे और अंततः आप जनमत की ओर जाने की कोशिश करेंगे
    इस संसार में आने के बाद न जाने कितनी गलतियों से हम सीखते और सिखाते है जिसका अनुमान लग जाए तो हमारी गलतियां, सही काम से कहीं ज्यादा होंगी इसीलिए यह व्यवस्था भी है, कि बहुत सारी सोंच को एक समय के बाद हम दिमाग की खुली खिड़की के माध्यम से छोड़ जाते है यह सत्य है, यहाँ सब कुछ संभव है बसर्ते हमें अपने आपको सही दिशा में ले जाने का प्रयास करते रहना चाहिए फल हमें प्रयास से ही मिलता है, न कि कहीं पर विश्राम करने से इस जिंदगी को जीने का मजा तभी पाया जा सकता है, जब हम गतिमान जिन्दगी की घड़ी के साथ गतिमान रहे। 
    किसी भी प्रकार के सहयोग के लिए मनुष्य से न सहयोग लेकर मनुष्य के विचार से लेना ज्यादा सही होता है इस बात से सहमत, आप उस सन्दर्भ में होंगे जब हमें किसी महापुरुष के विचारों का सहयोग लेना हो, जब वे खुद इस संसार से दूर चले गए हो परन्तु ऐसा नहीं है, ये बात हर जगह लागू की जा सकती है केवल विचारों की शक्ति का प्रयोग करके यह शक्ति अनंत है, जिसे समझना इतना आसान नहीं है अगर आप ऐसा करेंगे तो आप अपने बुद्धि का भरपूर प्रयोग कर पाने में सक्षम होंगे, जो किसी मनुष्य की उपस्थिति में बिलकुल ही संभव नहीं है
    "इस भाग में “जीवन के सत्य की ओर ........” में बस इतना ही। आगे आपके खुद के विचार मेरे लेख के सम्बन्ध में सादर आमंत्रित है। अगले लेख में, मैं समसामयिक भाग २ के लेख में आपके टिप्पणी अनुसार कुछ बेहतर लिखने की कोशिश करूँगा।" साभार,  
                                                                                   "-प्रभात"
  

Friday 26 December 2014

नव वर्ष का सन्देश .............

खिल रही कलियाँ यहाँ, प्रकाश जो आया है
नव वर्ष का सन्देश देने, प्रभात जो आया है
क्रिसमस आया है शिमला की यादों के साथ
दिसम्बर बीत जाने का संदेश, जन्मदिन लाया है

महीना पौष का था कभी जन्मदिन के साथ
आज फिर से वही जनवरी, आने को आया है
बारह महीनों के कुछ दिन थे बुरे, या रहे अच्छे
सारे महीनों को प्रभात, यादों में समेटने आया है

जम्मू तक चले गए थे कभी घर की चहारदिवारी से
साथ गुजारने वालों का, शुक्रिया अदा करने आया है
मंजिल न पाने की हसरत(खेद) में कई दिन गुजार दिए
मगर फिर से वही पाने का हौसला, नव वर्ष लाया है

मगरूर भी हुआ था पर सही रास्ते पर चलने के वास्ते
भटक कर राह पर आने की खुशिया ले आया है  
कुछ अच्छी शुरुआत होगी हमारे जीवन की
यही माकूलियत का भाव लेकर, प्रभात आया है

हर बार बातों को यादों में या यादों को बातों में गूथा
नव वर्ष अब उन्हें संजोने का रास्ता ढूंढ लाया है
आप भी खुश रहे और बहुत कुछ अच्छा करे
नव वर्ष की शुभकामनाएं देने, प्रभात अब आया है
                                                      -प्रभात   






Tuesday 23 December 2014

देश-प्रेम

कड़ाके की सर्द रात जब हमारे ध्यान में आती हैं तब हम कमरे से बाहर निकले ही होते हैं और जब हम हो सो रहे होते हैं तब रात आसमान के नीचे खड़े होकर दुश्मन से रक्षा कराते हैं - सरहद के रक्षक और असली पहरेदार. मेरे दिल में उन सभी के लिए एक अलग सी जगह बनी रहती है. कोई भी कविता या लेख इतना काफी नहीं हैं जो कुछ बयां कर दे फौजियों की हसरतों और उनके अटल इरादों को. फिर भी मेरी कुछ पंक्तिया खास इन्ही नौज़वानों को समर्पित है..........(पहली कुछ पंक्तियाँ देशप्रेमियों की एकता का सन्देश हैं और अंतिम कुछ पंक्तिया उनके असीम, अटल विश्वास और हौंसलों को उजागर करने का प्रयास करती हैं).


रुको चलूँगा साथ तुम्हारे, अभी मुझे आ जाने दो
बढ़ता कदम रुक जाए, उससे पहले आजमाने दो
जमी हुयी बालू सर्द में, रात अनोखी प्यारी रंग में
किसी से लहू मिले हमारा, साथ हमें भी आ जाने दो
रक्त-रक्त में देशप्रेम और सौभाग्य से प्रेम तुम्हारा
मिले कहीं ये सुख अमृत में भी न, पास जो रह जाने दो

कैसी ममता कैसा प्यार, पूछो इस प्यारी मिट्टी से यारों
माँ के आँचल जैसी मिट्टी, अब यही पर सो जाने दो
रुक कर पूछे हवा हमीं से, कहाँ पे उड़ जाऊं मैं
धैर्य दिला कर आते रहना, यहाँ मुझे बिछुड़ न जाने दो   
कहना मैं लौटूंगा, जब इतिहास कहीं पे लिखा होगा
फूलों से लिपटी अर्थी जब हो, खुशी से जल जाने दो 
                                                       -प्रभात

Wednesday 3 December 2014

ऐसे “प्रभात” होता हैं मगर वो नही होते।

मेरी याद का हिस्सा बनकर मत रहना,
-प्रभात
अकेले आते हो मगर “खाली” नही होते

कोई महफिल सजती है कभी बाजार में,
“तुम” होते हो मगर काफी नहीं होते

तुम्हारा प्यार खींचता है तरफ तुम्हारे,
मेरे साथ होते हो मगर ज्यादे नहीं होते

हर किसी को दिल में कैद करना भारी है,
हमारे शब्द बताते हैं मगर दिल नहीं मानते

अजीब बात है हम चाहते तो है कुछ,
ख्वाब कहते हैं मगर वे सच नहीं होते

कैसा सिलसिला  चलता जा रहा है,
उन्हें बात करना है मगर हम नहीं होते

बताता रहा हूँ अपने दिल की हर बात,
सुन लेते हैं मगर कुछ कह नही पाते

लपकती चिराग को हवा चाहती है बहुत,
ऐसे “प्रभात” होता हैं मगर वो नही होते
                                   -“प्रभात”    






Saturday 29 November 2014

ना रही बुलबुल और ना ही उसका तराना है।

आँधियों के आने से वादियों का जाना है
ना रही बुलबुल और ना ही उसका तराना है

कितने खामोश हैं बैठे जंगल के राजा शेर
अब उनकी ही राहों में आदमी का जाना है

रात्रि बन चुका दिन और दिन अँधियारा सा
ये घड़ी सर्द-गर्म रात की बिन मौसम आना हैं

पर्वतों में राह बना कर सो रहे हजारों राही
ऊंचे वृक्षों की कटाई मौत का ही बहाना है

समुद्री लहरे सिमटी थी ज्वार और भाटा तक
अब ये कैसा सुनामी व तूफानी का जमाना है

हदें पार करती हैं वो ज्वालामुखी की ज्वाला 
जहाँ पर जीवन का राख में बदल जाना है
                                                   -प्रभात 

ज्ञान पर व्यंग्य बाण!

    अब देखिये ना हमारे देश के आम लोगों को, जो कभी सब्जी बेचते है तो कभी फुटपाथ पर सो रहे है.  जनता है, बस जनता ही तो हैं. ज्ञान की असीम संभावनाओं से भरा अपना देश संभावनाओं की ही तलाश कर रहा है.

    रास्ते से गुजरते समय सब्जी और संतरे लेने लगा और मुझे यहाँ चिन्तन मनन करने पर मजबूर किया. भैया ये संतरे कैसे दिए. ले लो ४० रुपये किलो का भाव है. मुझे कहने की जरुरत न थी कि कुछ कम कर दो. जो आम लोगों को पड़ ही जाती है. अच्छा चलिए आप आधा किलो कर दीजिये. सामने से स्कूटी को रोकते हुए एक महिला ने भी पूछा “भिया संतरा तैसे दिए?” . ले लो ५० लगा दूंगा.
    मेरी आँखों के सामने ये सब हो रहा था. वो स्कूटी आगे बढ़ायी और निकल गयी. चेहरे पर मास्क लगाई थी उस संतरे वाले भईया को दिखने में वह "चीनी" तो लग रही थी. अरे भैया ये दाम मेरे लिए ४० और उनके लिए ५० ऐसा कैसे? मैंने पूछा. हँसते हुए पता हैं कितने का पड़ता है. अरे तो मुझे देखकर ४० और उन्हें देखकर ५०. नहीं भईया का तुहे बताई ई दुसरे देशे के हो न. अरे क्या बात करते हो ये अपने देश के ही हैं. अक्सर मैंने ऐसे कई मामले देखे जब ऐसा अंतर करते हुए पाया है. अब संतरे वाले भईया को समझाना मुश्किल था कि अपने देश में ऐसे भी लोग है जिनके रंग रूप में अंतर है बाकी हैं तो अपने देश के. फिर भी समझाने की कोशिश किया की उत्तर पूर्व के लोग ऐसे होते है. और हो भी तो ये दाम में अंतर क्यों??. भईया कहा समझते.
    अरे हद हैं लूट लो दूसरे को क्या यही कहता हाँ यही कहा. पर मुझे ये भी पता था सब्जी बेचने और फल बेचने का या फल बेचने का कारोबार यहाँ शहरों में कैसे चलता है. बड़े खुश होते हैं सब्जियों के दाम दुगने बताकर और चेहरे से माप कर. कई बार हद ही हो जाती है जब यही काम हमारे सेठ-शाहूकार कर रहे होते है.
    बाजारीकरण का ज़माना है, ज्ञान का थोड़ी न; साक्षरता का जमाना है न की वास्तविक विद्या लेने का. केवल नारे का इस्तेमाल करके मेरा देश स्वच्छ बन जायेगा. देख तो रहे हैं कूड़ा बिखेर कर साफ करते हुए हमारे माननीय नेता जी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर रहे हैं.  स्कूल बढ़ जायेंगे परन्तु आधारभूत संरचना का नाश करके. कहते हैं कम्पूटर का इस्तेमाल करेंगे और कलम कौन पकड़ेगा.
    अरे अब क्या मैं कोई नयी कहानी तो नहीं लिखने जा रहा. बस बता ही रहा हूँ कुछ अंतर जिनसे देश की उन्नति तभी होगी जब इन अंतरों को सब के सामने लाया ही ना जाया बल्कि हमारी आवाज को केवल इसलिए न दबाया जाएं क्योंकि मैं राजनैतिक बातें कर रहा हूँ और मेरा काम केवल बुराई करना ही है. जी नहीं मैं चाहता हूँ ऐसे संतरे वालों को कम से कम एक नैतिक ज्ञान न दिया जाये तो फुटकर ज्ञान दिलाया जा सके जिससे उन्हें अपने देश की चहारदीवारी तो पता हो.
    हमने तो उनकी बात तो कर ली अपनी तो की ही नहीं हमारे अपने भाइयों की जिन्हें ये नहीं पता की राजनेता का मतलब क्या है अपने अधिकार क्या है. कभी देखता हूँ हमारे विश्वविद्यालय की पंचवर्षीय स्नातक स्नात्कोत्तर पढ़ाई के बाद स्कॉलर बने लोगों की उन्हें तो नैतिक ज्ञान जितना था वो उसका इस्तेमाल अपने पंचवर्षीय योजना को बनाये रखने में लगा रहे हैं हद तब हो जाती है जब उनसे पूछा जाता है कि अखबार कौन सा पढ़ते हो. कहा समय मिले तब न. अखबार पढ़ते नहीं अंतिम पेज को देखते जरुर हैं. उन्हें तो बस मोदी का नाम पता होता हैं अपने एमपी का क्या प्रधान तक का नहीं.
    मेरी बात समझ में आ ही गयी होगी कि मैं केवल ज्ञान के उस धारा की बात कर रहा हूँ जहाँ से ये हमारे बचपन में लिटिल फ्लावर से शुरू होकर हमारी स्थिति में डेल्टा बना कर रुक जाती है और उस डेल्टा का उपजाऊपन बाबू की कुर्सी पकडे मिलती हैं. देश अनमोल हैं जहाँ डिग्रिया स्कूल से मिलती हैं और परीक्षा में पास कोचिंग कराती है. अरे ये कोचिंग वहां से होती है जब आठवी फेल दसवी पास करें और कुछ नगरों में पलायन कर अधिकारी बने १०१ प्रतिशत गारंटी के साथ.
     सच होता हैं कितने सपने जब माँ की गोंद में आने शुरू होते हैं और १ ००० तक की नौकरी जो की अपने सरकारी स्कूल के वजीफा से भी कम होता है उसमें अपने दिन और रात गुजरने लगते है . सुनता हूँ पहले रासन मिलता था अब उसकी जगह कम्पूटर मिलने लगा. कितनों ने तो अपने कम्पूटर से पैसे कमाने चालू कर दिए कैसे? उत्तर दूँ.... प्रकाश तो केवल सूरज की आती है हमारे गाँव में भूसा वाले कोठरी में जगह थी वहां चार्ज कर लेते है मशीन को और कभी चित्र दिखा के तो कभी गाना भर के पैसा आ जाता है.
    इतने तक ही बात नहीं सीमित है विकासशील देश क्यों है?? नहीं पता बाबूजी सब अपना विकास कर रहे है पहले पढ़ते हैं १४ तक फिर १२ से फिर दाखिला हो जाता है शादी एक बार होती हैं दुबारा से करनी पड़ती है बात क्या है अरे वो लडकी बदचलन जो थी वही खातिन. नहीं अरे ऐसा कोई बात नहीं बगल के चाचा अपनी लडकी के बगल के गऊवा में यही नाते किहिन कि खेत अच्छा बा लड़का तो अच्छा नहीं कोनों बात नाही, वो कम रुपईया में बिक गईल.इतने तो बात हैं. जब बात आती हैं अच्छी लड़के  से करने की जो उसके साथ पढ़ता था और आज अच्छी नौकरी हैं.... तो पता चलता है इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उनके घर में सारे संस्कारी है दूसरे जाति के लड़के से नहीं करेंगे न.
    अब ये भी पता चल गया होगा की मैं आधुनिकता और भौतिकवाद की बात क्यों लाया. मुझे नैतिक और वास्तविक ज्ञान के बारे में बताने का माध्यम मिला फेसबुक वहां कभी देखता हूँ कि मेरे लिखने पर अगर एक लाईक या एक पोस्ट हमारे गुरूजी या कोई अधिकारी या बड़े लोगों का आ जाता हैं तो उस के बाद गुरूजी के शिष्य और अधिकारियों के फालोवर बड़े जल्दी से आकर आईनें में चेहरा दिखा जाते हैं. मेरा मन कभी सोचता है बस इतना ही कि ये फेसबुक कभी फेकू की दुनिया न बन जाए.
    ये हिंदी भी क्या अजीब भाषा हैं, दो देश-प्रेमी बातें कर रहे थे. हिंदी आती हैं या नहीं, मुझे उन पर संदेह है पर अंगरेजी उन्हें हिंदी के बीच में इतनी जरुर आती है “फक यार........एक्जक्ट्ली...........स्योर ............ओ हाईई ई ..........चल तू स्लीप कर ले” अरे उन्होंने इतना कहते ही हमारी हिंदी को कई बार “चीप” भी बताया; इतना ही नहीं कभी चाट वाला, मैडम से “अवश्य” बोल दे तो उन्हें हंसी आती हैं...और भी तो और जब विज्ञान  क्लास में हिंदी भाषी बच्चा अपनी भाषा में कुछ कह दे तो इससे अच्छा जोक उन्हें क्या मिलेगा. कभी वे भी जो नहीं हँसते, हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते है...मतलब साफ़ समझ आता हैं कि हमारा देश की पहचान का मजाक तो बन ही रहा है साथ ही साथ  हमारा मजाक भी बन रहा हैं.  हमारे देश का मजाक और उसकी सभ्यता संस्कृति का मजाक भी बनने की बात अब आप ही करे तो बेहतर होगा.

“बस आज इतना ही. मेरे व्यंग्य वाली भाषा के साथ बने रहने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ”.  
                                                                                       साभार, "-प्रभात"

Sunday 16 November 2014

मेरे बचपन के दिनों को बहुत याद कराती है।

सूरज तुम्हारी लाली, आँगन में जो आती है
मेरे बचपन के दिनों को बहुत याद कराती है 
कोयल की कूं –कूं के साथ सुबह तेरा होना,
फूलों के गुच्छों का, सूरज तेरी ओर होना;
उठ कर बैठे देर तक तुम्हारी याद दिलाती है
जाड़े वाले ऋतु की सुबह, अब भी इंतजार कराती है। 


पानी भर कर इंतजार करती, मेरी माँ प्यार से
बार बार दूर भागता, फिर पकड़ती और मुस्कुराती;
मेरे लिए पहले ही चटाई लगाती थी, याद से
सरसों के तेल से मालिश करना और
गोद में होने का सुन्दर अहसास कराती हैं
मेरे बचपन के दिनों को बहुत याद कराती है

शाम की चर्चा पर बैठे अलाव के पास,
खेलते हुए और कहानियों पर हँसते हुए;
अब भी दादी का बनाया पकवान खाकर,
रजाई में सोये दादा के साथ; दादी की याद आतीं है
बन्दर की टोपी पहनानें, चांदनी रात बुलाती  हैं
ओंस भरी सुबह, रातों का सुन्दर अहसास कराती है
                                       -"प्रभात"

Tuesday 4 November 2014

.............देखे हैं ।

अपनी आँखों ने सपने वही देखे हैं
जो दर्द ने मेरे दिल से कभी बयाँ किये हैं

कई हजारों को अपने पास से गुजरते देखे हैं
संभल कर दौड़ जाने वालों को भी देखे हैं

कभी मुस्कराहट तो कभी गम देखे हैं
कुछ चेहरों पर इतर खामोशी के झलक देखे हैं

नाइंसाफी की मार पड़ते कुछ पर देखे हैं
फिर भी हंसकर फंदे से लिपट जाते भी देखे हैं

भीड़ में साथ चलने वालों को देखे हैं
वहीं अकेले चलकर भटकने वालों को कई देखे हैं

हमारी तालीम पर हंस कर गुजरनें वालों को देखे हैं
सीखते परिंदों से ही भ्रमण करने वालों को भी देखे हैं     
                                                          -“प्रभात”

मेरे शब्द।

शब्द जुबां से लड़खड़ाएं
मेरे पन्नों से टकराएं
मेरी आँखों को समझाएं,
और बेध कर निकल जाएं
ये मेरे शब्द ही समझाएं
क्यों तरंगों की तरह चलकर
मेरे अपनों को दुःख पहुंचाएं

जब खामोशी सवाल कराएं
गणित के जोड़ घटाना से लेकर,
मेरे बचे हुए उर्जा का प्रयोग कर,
मुझसे इतने गुणा-भाग कराएं,
कि संवेदनाएं कुछ न कह पायें
बस लाचारी दिखाएं, और
संवेदनशीलता भी मिट जाये

ये दोनों तब बुरी बन जाएं,
जब मेरे शब्द स्वतंत्र हो जाएं
या तो किसी खूटे से बंध जाएं
फिर इनके विचार गुणा कर के
विकृत वाक्य बन कर रह जाएं
समझें, और फिर समझाएं
क्यों मेरे शब्द जुबां से लड़खड़ाएं
और खामोशी सवाल करवाएं

                  
                    -“प्रभात”

Thursday 30 October 2014

मेरी प्रेम कहानी से ............

निस्तीर्ण हुआ तो क्या हुआ स्नेहिल स्पंदन जब है कायम।
गूंज रहा प्रतिध्वनि लेकर वह, रू-बरू रहा अब तक रूपायन।।

                                                                                                -Google image

देह दैविक मानो हुआ जो उनका, पर दैन्य से स्मरण हो रहा।
साँसों के सारंग स्वर से उद्वेलित है सत्यम शिवम् सुन्दरम।।

                                         
                                                -“प्रभात”

Wednesday 22 October 2014

एक दीप जले पर मन से, खुशियों के दिए जलाना है।

 सूरज की राहों में अचरज आज अन्धकार ने डाला है, 
तभी शत्रु के आने से पहले मानो पहले दूर हो चला है


मेरे घर के आँगन में खिलते फूलों में सायंकाल 
भौरें भी न जाने क्यों घर को वापस जाने लगे 
मीठे-मीठे रस के गुच्छे लेकर घर में लौटे जब, 
घर के आँगन में खूशबू ने ऐसा अहसास कराया हैं, 
मानों राम के वन से लौट कर आने का संकेत हो चला है  

प्यारी-प्यारी किस्सों से आज का प्यारा दिन बीता है, 
तभी दादी-दादा के चरणों में प्यार का बंधन न टूटा है 

सुन्दर मुस्कान भरी शाम हवा लेकर आया 
दीपों के ढेर में बिठाकर कुछ याद कराया; 
कहते हैं खलिहान हमारी समृद्धि को बताते हैं 
और तभी खेत हमारे दीपों से सजने की याद दिलाते है,
सब धर्मों ने अमावस्या की रात्रि को सुन्दर ही माना है

दिया और उनकी और भी छोटी लौ ने कैसा प्रकाश कराया है,
कि आज सूरज की घमंड को व्यर्थ साबित कर दिखलाया है

आओ थाली में दीपों को एक दिशा में सजाये 
तुम ले जाना पूरब को, मैं पश्चिम की ओर चली 
और कहीं पे भूल मत जाना रोशनी न दिखलाने को
खिड़की पर दो चार दिए और "घूर" पर ऐसा दीपक जलाना 
रात-रात भर नींद से उठे जब, तब भी ये बुझ न पाए 

ऐसा ही कुछ करना प्यारों तुम्हे, दिए ऐसी अब जलाना है, 
ऐसी काली रात में मेरे, तुम्हे दीपक बन कर जगमगाना है

कंद की सब्जी खाने को कितना दिन इन्तजार किया 
कुछ मीठा हो जाये अब, फिर मिल कर आँगन की और चले 
देखोगे तो घंटी तले दीपक, ऐसे काजल बना रहे होंगे 
जो हम सबके आँखों के सपने को बतला रहे होंगे; 
घूम-घूम कर दिन भर आज पढ़ कर याद किया था 

सच में दीवाली मुझको अब कितना कुछ कहने को कहता है, 
क्योंकि ये सब पुरानी यादों के गुलदस्तों से होकर आता है 

अच्छा यह तो देखो कंडील कैसा लहरा रहा दूर तलक
खुश हैं लोग उनके लहराने पर मानों चीन ने खरीद लिया उन्हें 
चंद ख़ुशी की खातिर कैसे बम से बच्चे शिकार हुए
क्या यही चंद खुशी वो मिट्टी के दीप सिखा रहे, 
सीखो और बदलो अपने आप को, घी के दिए जलाकर

हमें पुरखों की सुन्दर सोच को कहीं मंच पर लाना है, 
एक दीप जले पर मन से, खुशियों के दिए जलाना है
                         
                              -"प्रभात"