Monday 16 September 2013

अब अधिकार न मुझे मार.…!

   अक्सर मैं जब कभी किसी रास्ते से गुजरता हूँ तो मेरी दृष्ट उस महिला की और घूम जाती है. वह कुपोषण के शिकार हुए बच्चों के साथ दिखती है, दो -चार साल के नन्हे बच्चे अपनी माँ की सहायता अपने नैतिक धर्म के रूप में करते दिखाई देते हैं और माँ सीमेंट भरे तसले लेकर जा रही होती है. ऐसे  समय मुझे गाँधी जी का जंतर ध्यान आने लगता है और सच में मुझे ऐसा लगता है कि गरीबी भारत की कहाँ पर खड़ी है. ३२. % केवल गरीबी ही नहीं है, यह ४०० मिलियन लोगों को भूखा सोने पर मजबूर करती है तो वहीँ इनकी पीढ़ी की शारीरिक छति की कल्पना नहीं की जा सकती।
संविधान जैसे ग्रन्थ ने वो सारे मौलिक अधिकार समाहित कर लिए है जब १९५० में इसकी उद्घोषणा हुई, इतने दिनों बाद भी इन अधिकारों के पीछे भागता गरीबी का यह मानुस अपने ऊपर शासन कर रहे लोगों का शिकार तो बनता ही है वह अपनी बची हुई अधिकारों को भी खो देता है. कहा जाता है मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है  लेकिन क्या सारे मनुष्य?? मुझे जीनें के अधिकार में तीन चीजें तो पहले से ही प्राप्त है-रोटी , कपड़ा, और मकान पर क्या सब को??? मेरे द्वारा  नीचे लिखे कुछ लाईनों पर गौर करें,तो आप जरुर इन अधिकारों से उसी जंतर की वेदना की तरह जुड़ पाएंगे।


                                             अधिकार मुझे मार 
                                           किस कोने से चलकर आया 
                                           पढ़ा लिखा किस काम आया 
                                          जो जायज है वही कहने आया 
                                             गलती हो तो ही मार 
                                             अधिकार  मुझे मार 

                   साक्षी मेरा कोई बनता नहीं 
                क्योंकि ऐसे कोने से कोई पलता नहीं  
                खुद नैतिक पैमाने पर चलता आया 
               परिवार भी इसी ओर ढलता आया 
                  दो रोटी का ही कर दो गुजार 
                    अधिकार मुझे मार 

  संघर्षों से बचता आया 
 कभी-कभी पिटता आया 
रूमाल से तन ढकता आया 
जब भी मैं सिक्कों से घिर आया 
मांग से ही तो हो जाती तकरार 
 अधिकार मुझे मार 

                  मेरी झोपडी है मेरा मंदिर 
               फैक्ट्री की जरुरत ने कर दी बंदिशे 
               फूस की छप्पर को उजाड़ने आये 
                बुलडोजर से ही पैर डगमगाए 
               अब झोपडी का भी रहा हक़दार 
                   अधिकार मुझे मार 

                                    देखना पड़ा कचहरी का क़स्बा कहीं 
                                     बाबू की फाईलों से घिर  गया वहीँ 
                                    तहसील में भी लाईन लगाने आया 
                                    यहाँ भी कोई सुनने सुनाने आया 
                                     छोटे जमीन से कर व्यापार 
                                       अधिकार मुझे मार 

                   दो बच्चों को लेकर फूटपाथ गयी 
                   गृहणी की जगह मजदूर बन गयी 
               मजदूरी करना तो दूर, हुआ इज्ज़त का बेइमान 
                 ठेलते हुए कर देते पीछे, आगे के जवान 
                  तनिक सन्देश का भी भूखा बना रहा 
                  आपदाओं से लगातार होती रही वार 
                      अधिकार मुझे मार 

जीनें के लिए बस करता रहा गुजारा 
 बच्चों को पाठ करता हर पखवारा 
ऐसे जीवन से जीना सीख ली इन्द्रियाँ 
 हार हार कर जीता बच्चों का दिल 
  बच्चों को छोड़ दे अब किसी पार 
   अब अधिकार मुझे मार.… 

Tuesday 10 September 2013

बस अफवाहों से घर-बेघर हुए जा रहे हैं

न मजहब की लड़ाई है न ही किसी खतरे की,
बस अफवाहों से घर-बेघर हुए जा रहे हैं
जिनके घर में एक रोटी-दाना का जुगाड़ नहीं,
वे धर्म-सम्प्रदाय के बंधन में फसें रहे है
राजनीति करते चंद लोगों के साये में सदैव,
मोहल्ले के बेसहारे लोग ही हिंसक बनते रहे हैं
एकता के सूत्र में पिरोये भारत को अब,
मात्र धर्म के नाम पर चुनौती दी जा रही है……….